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मिलना होता है
नदिया को
अपने प्रीतम से
समा के उसी में
बन जाती है
'वो' ही,
होता है
प्रवाह उसका
उसी दिशा में
जहाँ होता है
स्थिर सा
व्याकुल प्रेमी
उसका,
किन्तु आकर
समीप उसके
बाँट लेती है
स्वयं को
कई धाराओं में,
लेना चाहती हो स्यात
थाह उस अथाह की
पूर्व सम्पूर्ण विलय के..
बहुत सुंदर ।
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