Friday, December 23, 2011

REVOLUTION....

# # #
Revolution is
Not the flash of
Lightening,
That vanishes
After the rain.

Revolution is
Energy of thinking
Which shakes
The unconscious
Awareness,
Breaks the backbone of
Destructive orthodoxy,
Reveals the value of
SELF and SPIRIT,
So that the class may
Serve the mass.....

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क्रांति -हिंदी वर्ज़न
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नहीं है क्रांति
चमक दामिनी की ,
जो हो जाये विलुप्त
वृष्टि के उपरान्त .

क्रांति तो है ऊर्जा
विचारशीलता की,
झकझोरती है जो
सुप्त चेतना को ,
तोड़ देती है मेरुदंड
विध्वंसकारी
परम्परानिष्ठा का ,
कराती है
मूल्यबोध जो
सत्व और तत्व का,
स्वयं का ,
आत्मा का
दे पायें ताकि
सहयोग
सुधिजन अपना
'सर्वजन सुखाय
सर्वजन हिताय '
उपक्रम में ...

सांझ की बेला....

# # #
ढलता सा
सुरमई सूरज
ललाट पर
बिंदिया सिंदूरी,
चपल मीन
नयनों की पुतली,
कमल की कली
गदरायी जवानी,
किनारे पर काई
काजल सिंगार,
लहरों का लहराना
उड़ता आँचल,
सांझ की बेला में
झील
विह्वल व्याकुल...

मिथ्या अमिथ्या....

# # #
मन के दो रूप,
प्रतिबिंबित मन
मूल मन,
पहला छाया
दूसरा आत्मा...

जोड़ कर पहले से
किया जाता है जो
होता है
एक अभिनय
सोचा विचारा
द्वारा स्वयं के
और/अथवा
द्वारा समूह के,
विगत में
और/अथवा
वर्तमान में,
योगित दूसरे से
होता है जो
वह है
शुद्ध सत्व...

छाया है
कामना
प्रतिबिंबित
मन की
गुण प्रधान,
संचालित
विद्या अविद्या द्वारा,
मूल मन
होता है
गुणातीत
उसकी कामना
होती है
दिव्य...

प्रतिबिंबित मन
बन कर
छाया
करता है सम्पादित
समस्त
सांसारिक कर्म,
शुभ भी
अशुभ भी
अच्छे भी
बुरे भी....

निर्णय
मिथ्या अमिथ्या का
होता है सापेक्ष,
अर्थहीन
स्यात
क्रीड़ा एक
बुद्धि की,
हो जाना संलिप्त उसमें
सुसुप्तावस्था में भी
होता है कारण
जीवन के
अनेक बड़े कष्टों का..

हो अभिष्ठ हमारा
चेतन मन
देखें समझें हम
छाया के
कारणों को
विमुक्त हों कर्ता भाव से,
उतर कर
ध्यान में
इसी संकल्प के साथ,
जान पाने
सत्व निज का...

( छाया रूप में भी संस्थित है देवी माँ, कैसे नकारें छाया को भी मिथ्या समझ कर...बस साक्षी भाव से माँ के विभिन्न रूपों का दर्शन करते हुए...माँ से मिल जायें...उसके अल्टीमेट रूप में समा जायें..सत्व को प्राप्त हो.)

Sunday, December 18, 2011

बस थे देख्यो ,बस म्हे देख्यो ....

इसड़ो ना कोई
जीयो म्हानें
भावां में घुला
सबदा में बसा
मोत्या री लडियां ज्यूँ बरसा
हिवंडे रे आंगण में सरसा....

(जिया नहीं किसी ने
हमें ऐसा,
भावों में घुला कर,
शब्दों में बसा कर,
मोतियों की लड़ों सा बरसा कर,
अपने ह्रदय आँगन में सरसा कर..)

बात कैंया जाणू मैं आ,
क्यूं अणभूत म्हारी
मींची आंख्यां,
कुण सो ऐड़ो गून छुयो
जे चिपक गयी
म्हारी पांख्यां.....

(कैसे जान पाउँगा मैं यह,
क्यों की थी बन्द
मेरी अनुभूति ने
अचानक आँखें,
ना जाने किस गोंद ने
छू डाला था
चिपक गयी थी
मेरी पांखें..)

थे मुळकी ज्यो !
थे खुश रह्ज्यो !
थे गायीज्यो !
थे नाचीज्यो !
दुखड़ो थां ने ना सतावे कदै
दुनियां री सब बाधावां रळ
बिचलित ना कर पावै थां ने
थे पावो थां रो चिर आंको
राह- मजल मिलज्या थां ने ..

(मुस्कुरायियेगा आप !
खुश रहिएगा आप !
गायियेगा आप !
नाचियेगा आप !
कोई भी दुख ना सताए आप को !
दुनिया की सारी बाधाएं भी मिलकर
विचलित ना कर पाए आप को !
मिले आप को आपका चिर लक्ष्य
राह और मंजिल मिल जाये आपको ! )

ओ मन हरख्यो
ओ तन चह्क्यो
बागां रो हर खूणो मह्क्यो
सबद कैयां कैवे आ सब
बस थे देख्यो ,बस म्हे देख्यो ......

(यह मन हरषे
यह तन चहके,
ह़र कोना बगिया का महके ,
कह सकते कैसे
ये शब्द लाचार,
बस देखा आपने
बस देखा हम ने.....)

कंक्रीटी जंगल के शेर....

# # #
हैं आज हम
कंक्रीटी जंगल के शेर,
भूला दिया है
शहर ने
वो गाँव के गली कूचे
पनघट की रंगीनियाँ
चौपाल की संगीनियाँ
वो किसी शहरी कार के
पीछे भागना,
मुंह अँधेरे जागना
खेत में पंखेरुओं पर
गुलेल दागना,
चकोतरे का
खट्टा-मीठा जायका,
गुलदाने का
सुनहला रूप रसीला,
निमोने को देख कर
मुंह में पानी भर आना,
गाज़र का हलवा,
मेरठ की रेवड़ियाँ,
तिलकूट और गज़क,
गिल्ली डंडे का खेल,
जुम्मन और जसिये का मेल,
सत्यनारायण की कथा,
देव देहरियों की महत्ता.
खो गया कहाँ
मेरा बचपन....

देर से सोना,
देर से जागना,
बिना वज़ह ताकना
बस ताकना,
नींद की गोलिया
झूठी सची बोलियाँ,
केक और पेस्टरियां,
हेल्लो हाय
बाय बाय,
प्लास्टिक फूल से रिश्ते,
अपने गैरों से सस्ते,
समझ में ना आने वाले उसूल,
बात बेबात मशगूल,
दिखावा ही दिखावा,
ह़र बात पर मुलम्मा
ह़र बात पर चढावा,
आओ ना लौट चलें...
आओ ना लौट चलें..

Wednesday, December 14, 2011

आभास (आशु रचना)

# # #
देखो ना
विद्रोही कोलाहल
होकर प्रतिकूल
मचा देता है
हलचल
सन्नाटे के
शांत
साम्राज्य में,
किन्तु
दूसरे ही पल
हो कर
अनुकूल
समा जाता है
उसी
सन्नाटे के
गहनतम तल में,
यह नहीं है
आत्महत्या
कोलाहल की,
ना ही हनन
उसकी
अस्मिता का,
यह तो है
बस
आभास
एक दूजे में
एक दूजे के
होने का,
अनुभूति एक
सत्व की,
प्रतीति
समग्र सत्य की..




Sunday, December 11, 2011

मूर्खों का गाँव उर्फ़ किस्सा अधपके ज्ञानियों का..


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मेरे स्टुडेंट लाईफ के दौरान हम लोग कोलेज केन्टीन या कोफी हाउस में इकठ्ठा होते थे. हमारे कुछेक साथी सूखे सूखे कामरेड टाईप्स हुआ करते थे, बिलकुल निराशा और दर्द की बातें करने वाले. आम इंसान के भूख-इलाज के अभाव-टपकती छत और ऐसे ही कई मुद्दों में पथेटिक हालात, प्रेम में मिले दर्द, प्रेम नाम की चिड़ियाँ खाली पीड़ा का भण्डार, खुदगर्ज़ संसार, अमरीका की ह़र बात अपसंस्कृति और उसकी नीतियों का साम्राज्यवादी जनविरोधी होना-ठीक उसके विपरीत चीन और रूस की लगभग वैसी ही हरक़तों को समाजवाद और जनवाद के नाम जस्टिफाई करना, ह़र सुन्दर और सुकून देनेवाली शै की भर्त्सना, ऐसे कितने ही मसले होते जिन पर उनकी जुबान की कतरनी कच कच चला करती थी. ज़िन्दगी के दुखों को मेंटेन करने में लगे ये लोग हमेशा उदास, ग़मगीन, बेतरतीब और मैले कुचेले दीखते थे.किसी की दाढ़ी बढ़ी हुई, तो हेयर कट नहीं करायी हुई, सस्ते मैले कपड़े (अलग सा दिखने के लिए) बदन पर, बात बात में झगड़ने और तर्क-कुतर्क करने की आदतें, ह़र बात पर आक्रोश और रूठ जाना...बहुत ही नाज़ुक मिजाजी, फूला हुआ अहम् का गुब्बारा, औढा हुआ स्वाभिमान (हीन भाव के कारण)...ह़र बात में खुद को महाज्ञानी और विचारवान साबित करने का ज़ज्बा..मेरे इन दोस्तों की शख्सियत की खासियतें होती थी. हमें गाली देने वाले ये लोग, हमारे पैसे की दारु, सिगरेट्स, चाय, नाश्ता उपभोग करने में हमेशा तत्पर रहते थे.....इन्हें ह़र समय अपनी बातों की मतली करने की तीव्र उत्कंठा रहा करती थी. इनमें से एक इंसान तो ऐसे हुआ करते थे जो धनी परिवारों की कल्लो कुमारियों को अपने इश्क के जाल में फंसा कर, बिस्तर तक की यात्रा करा देते थे...और उनके पैसों पर मौज-मस्ती भी कर लिया करते थे...और जब कुछ उन्नीस इक्कीस हो जाता तो पल्ला झाड़ कर अलग खड़े हो जाते थे...और अपनी इन्ही जलील हरक़तों को वर्गसंघर्ष का नाम दे दिया करते थे.

दक्षिण में जाना सटीक हों तो ये उत्तर को चलेंगे...अलग दिखने के लिए ये बन्दे पांव के पंजों से नहीं, शीर्षासन मुद्रा में हथेलियों के बल चलेंगे...उस समय और भी बहुत कुछ इन ढीठ बन्दों के लिए कहा जाता था लेकिन आज बस इतना ही.

हाँ मेरे कुछ जेनुइने सरल, सहज, कम्युनिस्ट/सोसलिस्ट ईमानदार मित्र भी थे, जिन पर मुझे गर्व है...लेकिन वे हमारी इन टाईम पास मजलिसों का हिस्सा कभी नहीं होते थे, उनका साथ पाने के लिए मैं लालायित रहता था और जब भी उन्हें सहूलियत होती उनके साथ जा बैठता था.......कुछ महत्वाकांक्षी सामान्य परिवारों से आये साथी भी थे जिनके लिए हम कह सकते थे - सिम्पल लिविंग हाई थिंकिंग के साक्षात् प्रतीक., जो आज खुद को और दुनियां को बहुत कुछ देने में सफल हुए हैं. इन भले लोगों की चर्चा फिर कभी. आज तो दिल कर रहा है, पहली केटेगरी के लोगों की खिंचाई करने का. एक किस्सा आज शेयर कर रहा हूँ...

हाँ तो सुनिए किस्सा...

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भाई यह मेरी अपनी सोची समझी और कही बात नहीं, एक सुनी सुनाई कहानी है. किसी ज़माने में एक छोटा सा गाँव हुआ करता था मूर्खों का.
वे ना तो कुछ जानते समझते थे और ना ही किसी चीज को पहचानते थे. एक दफा ऐसा हुआ कि बारिश के दिनों एक मेंढक उस गाँव के एक घर में घुस आया. उस से पहले गाँव के आदमियों ने कभी मेंढक नहीं देखा था.

घर जिस मूर्ख का था उसने चिल्ला चिल्ला कर इस नये प्राणी के उसके घर में आने को प्रोपेगेट किया. बहरहाल इस अजूबे को देखने गाँव की सारी आबादी इकठ्ठा हो गयी.

ह़र कोई अपनी अपनी ओपीनियन दिये जा रहा था, कि यह कौन जाती प्रजाति का जन्तु है..इसके आगमन से क्या हुआ है...इसका क्या होगा..वगेरह वगेरह. कोई कह रहा था यह तो हरिण है, किसी ने मिमियाया अरे यह तो बगुला है, तो कोई कहने लगा अरे यह तो मेरे घर में ''वो" जो आया था ना वैसा है. इतने में पीछे से एक मूर्ख-महाज्ञानी की आवाज़ सुनाई दी : अरे भई बिना सोचे समझे कयास लगाने से क्या फायदा ? सियार होगा..बारिश के मौसम में जंगल से इधर निकल आया होगा..हमारे यहाँ की अलौकिक सुख सुविधा का लुत्फ उठाने.

इतने में भीड़ में से एक समझदार 'रायचंद' का उवाच हुआ, "मेरी सुनो..मेरी सुनो तो..दादाजी को बुला लो. वो बुजुर्ग हैं, उन्होंने जमाना देखा है, वे जो भी बताएँगे सौ टका सही होगा, अपन लोग नातुज़ुर्बेकार क्या जाने ?"

तो जनाब दादाजी चारपाई पर बैठे हुक्का गुडगुडा रहे थे ताकि कब्ज़ी की पकड़ कुछ ढीली हो और वे राहत-ए-रूह पा सकें. ऐसे में दौड़ता हुआ एक गाँव वला उनके इजलास में हाज़िर हुआ..

फटी अंगरखी, मुड़ातुड़ा साफा और घुटनों तक की मैली कुचैली धोती पहने चाचा चौधरीनुमा दादाजी की बन आई, बड़ा 'इगो सेटिसफेक्सन' हुआ, जब उन्हें इस मसले को हल करने के लिए सादर अनुरोध किया गया और उनकी बहुमोली राय मांगी गयी. जनाब, जो अधोमुखी थी, वह अचानक उधर्वमुखी हो गयी...याने फिर से ऊपर चढ़ गयी. फिर क्या था, दादाजी ने लठ उठाया, नथने फूलाते हुए,टेढ़े मेढे कदम रखते हुए..घटनास्थल की तरफ कूच करने लगे.

बुढऊ याने दादाजी हांक रहे थे, "अरे तुम लोग भी कुछ सीखो समझो, मैं कब तक जिंदा बचा रहूँगा...आज कल देखते नहीं मेरी तवियत भी नासाज है."

जनता को धकियाते हुए दादाजी मेंढक के पास गए.

टूटे चश्में को जरा सेट करते हुए धीमी आवाज़ में बोले, "अरे मूर्खों यह कौन सी बड़ी बात है. इसके आगे तनिक दाना डाल कर देखो. अगर चुग लिया तो चिड़ियाँ नहीं तो सांप."

गाँव के सब लोग बुढऊ की अक्लभरी बात सुन कर गदगद हो गए.

ऐसे ज्ञानी बुढऊ थोड़े बिंदास या कहें कि बेशर्म भी होते हैं ना, दादाजी बोले, "अरे किसनिया, तनिक लौटा ले आओ तो, बड़ा दिल हो रहा है..धोरे पास ही हैं, तनिक निपट लेते हैं."

किसनिया सविनय पेस्टीसाईड के दो पोंड वाले पुराने टेनिये में गन्दला सा पानी लिए हाज़िर था. दिशा मैदान में जो भी हो जैसा भी हो पानी चल जाता है, ऐसी मान्यता थी उस गाँव में.





मुश्किल कहाँ !

# # #
ज़हर पीना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
ज़हर पचाना..

ना जाने कितने बन्दों ने
अपने हाथों पिया हलाहल,
और उडेला साकी ने भी
भर भर सागर खूब छलाछल,

कम ही होते
हलक़ बावरे ,
जाने समझे जो
गरल छिपाना..

कितने शख्स गिनोगे
जिनके साथ थे छूटे, ख्वाब भी टूटे,
राह जो भूले चलते चलते
पंख आसमां में थे टूटे

पीर सहना,
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
पीर भुलाना...

अश्क होते हैं गवाह दर्द के
यह तसव्वुर हुआ पुराना,
आबे-हयात कर ,पीना उनको
ज़ज्बा है यह नया सुहाना,

प्रेम करना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
'प्रेम ही ' हो जाना ...

Thursday, December 8, 2011

आखरी सफ़र...

# # #
ये छोटे छोटे
सफ़र,
जाना और फिर
लौट के आ जाना,
इन्तेज़ामात
रास्ते के खर्च के,
बेग में भरना
पहनने के कपड़े,
टूथपेस्ट टूथब्रश,
रेज़र और फोम,
कोई किताब और रिसाले,
और
खोज किसी साथ की,
यह फ़िक्र
वह फ़िक्र....

कितना
बिंदास होगा
आखरी सफ़र,
ना होगा कोई बोझ
ना ही किसी के
संग की खोज,
ना लेना होगा
कुछ भी साथ,
होंगे बिलकुल
खाली हाथ
ना होगी कोई
हिदायत
ना ही करना होगा
इंतज़ार और सब्र,
नहीं देनी होगी
किसी को
पहुँच की खबर...

द्रवण....

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बहुत अजीब हैं ना परामनोविज्ञान की बातें. हमारे अंतर में कुछ भाव आ रहे हैं और उन स्पंदनों का 'क्वालीटेटिव' सम्प्रेषण दूर बैठे सम्बंधित व्यक्ति तक हो जाता है..चाहे बहुत बारीक डिटेल्स ना पहुँच पाए लेकिन स्थति कि गुणवत्ता अवश्य पहुँच जाती है. जैसे कि हमारी उदासी, खोयापन, ख़ुशी. पीड़ा इत्यादि के एहसास. हम चले जा रहे हैं और किसी नगमे को गुनगुना रहे हैं या उसे सोच रहे हैं और पास के किसी रेडियो पर वही गाना बज रहा होता है. हम किसी 'विषय विशेष' का चिंतन कर रहे हैं, और स्टाल से जिस मेग्जिन को उठाते हैं उसमें उसी पर कोई आर्टिकल छपा मिल जाता है. हैं ना कुछ बेतार के तार !

गत कई बरसों से ये स्पंदन अंतर में घटित होते, गुज़र जाते...लिखने का मन होता, शब्द नहीं मिलते, मानस नहीं होता क्योंकि बहुत ही अंतर्विरोधी से होते हैं ये...कुछ दिल से, कुछ दिमाग से, कुछ इस जन्म से, कुछ पहले के जन्म से, कुछ वास्तविकता से कुछ कल्पना से, कुछ भ्रम-कुछ स्पष्टता..अवचेतन में कहीं कहीं अपनी दृढ सोचों के खिलाफ की भी थोड़ी स़ी बात. दोस्तों ! रचना एक धुंधला सा रूप लेती और ना जाने कैसे फिर क्यों बादल की तरहा बिखर जाती. ज़रूर कुछ मेरी सीमाएं और कुछ अस्तित्व का विधान रहा होगा. सोचता था आज नहीं तो कल ज़रूर लिख सकूँगा...लेकिन बात जहां की तहां.

आज सन्डे की सुबह. युजुअली ऐसी सुबह चाहे अनचाहे मेरे दोस्त मुल्ला के नाम हो जाती है..लेकिन आज तय किया 'नो मुल्लाबाज़ी' आज जो कुछ पढने के लिए जमा किया है पिछले दो सप्ताह से उस पर नज़र डालूँगा.... और पहली ही नज़र पड़ी 'पत्रिका' समूह के चेयरमेन, प्रबुद्ध चिन्तक एवं वरिष्ठ पत्रकार डा. गुलाब कोठारी,जिनका मैं प्रशंसक हूँ, की एक रचना पर. मैं 'एट फर्स्ट' क्रमश: याने लाईन दर लाईन नहीं पढता. बस केमरे के लेंस की तरह मेरी आँख आलेख को क्लिक करती है और करीब करीब 'एसेंस' मेरे ज़ेहन तक पहुँच जाता है ...फिर बांचना होता है तो बांच लेता हूँ...हाँ तो ऐसी क्लिक के साथ एहसास हुआ कि ऐसा ही कुछ (हो सकता है शत प्रतिशत ना हो) तो मेरे सिस्टम में चल रहा होता है.
डा. कोठारी की इस रचना को अपनी सी समझते हुए आप से शेयर कर रहा हूँ. बस शीर्षक दिया है मै ने,शायद यह मेरे द्वारा करने के लिए छूट गया था , हाँ प्रस्तुति को भी थोड़ा मेरे मन माफिक बनाया है लेकिन एक भी शब्द नहीं बदला है, ज़रुरत नहीं थी.

मूल रचनाकार के लिए कृतज्ञता और अहोभाव.
द्रवण : ~~~~# # #
आद्या !
देखते ही तुम को
भर आता है
मेरा मन,
और न देखूं
दो चार दिन
बाहर रह कर,
तब भी
भीगते है रहते हैं
नयन क्यों ?

कैसा है यह
द्रवण मन का
नेत्र कहते
मन की भाषा,
जैसे कुछ रुआंसा.

मन एक है
द्रवण दो
मिलन का भी
बिछोह का भी,
झुक जाती है
मेरी आँखें
देखते ही तुमको,
श्रद्धा से,
शायद
तुम्ही हो
सेतु
मन-आत्मा का.

झिन्झोड़ो इसे
झाड़ दो
परतें सारी
एक एक
न्यारी-न्यारी,
बहा दो इन्हें
दूर दरिया में
गहराईयों में
तभी शायद
उभरेगा
फिर से मन मेरा
द्रवित तो होगा
करूणा भी होगी,
स्नेह रहेगा....
किन्तु हाँ !
न होगा बंधन
मन पर कोई
ममत्व का
आसक्ति का.

शायद तुम
कह रही हो
यह सब-
जब भी कौंधती
आँख में झलक,
तुम्हारे चेहरे की.

जैसे तुम भी
भूल जाती हो
मुझ को
दूर होते ही,
ले चलो मुझे भी
उसी मार्ग पर
पकड़ कर अंगुली.

(आद्या=दुर्गा/शक्ति/देवी)

संस्कृत साहित्य में मैत्री

महक की 'मैत्र शीर्षक कविता ने प्रेरित किया है इस संकलन को आप मित्रों से शेयर करने के लिए. बहुत प्रसन्नता अनुभव कर रह हूँ.

परम पवित्र शब्द है मित्र जिसका समरण कर मन सुख से सरस हो उठता है और एक नया सम्बल मिलता है. सखा, सुहृद, संगी, साथी, हित हितैषी आदि इसके पर्याय है, मित्र के अनेक गुण दोष गिनाये गए हैं, इसके जागतिक और पारमार्थिक अंतर भी है.

'मि' क्रिया से क्त्र प्रत्यय लगा कर मित्र शब्द बना है, जिसकी हमारे संस्कृत साहित्य में नान प्रकार की व्याख्याएं की गयी है. इस प्रस्तुति में शनै शनै आपके समक्ष ये व्याख्याएं अथवा कथन उपकथन आयेंगे, आशा है आपके मन को मुदित करेंगे एवं मैत्री भावना को और प्रबल करेंगे.

१. मिनोति मानं करोति--जो आदर करता है वह मित्र है.
मिद्यती स्निह्यति इति मित्र: -- जो स्नेह करता है वह मित्र है.
मितं रिक्तं पूरयति इति मित्र: -- जो कमी पूरी करता है वह मित्र है.

२.तें धन्यास्ते विवेकज्ञास्ते सभ्या इह भूतले,
आगच्छन्ति गृहे येषां कार्यरत सुहृदो जना: .

इस धरती पर वे ही धन्य है, वे ही विवेकी है और वे ही सभ्य है जिनके यहाँ कार्य में शामिल होने के लिए मित्रगण आया करते हैं.
३. किं चन्दनै सकर्पूरैस्तूहिनै: किंच शीतलै,
सर्वे ते मित्रगात्रस्य कलां नाहरन्ति षोडशीम.

चन्दन, कपूर और बर्फ आदि शीतल पदार्थों की कौन स़ी गणना है, वे सब मित्र के स्पर्श की शीतलता के सोलहवें अंश के भी समान नहीं है.

४. आपन्नाशाय,विबुधे कर्त्तव्या: सुहृदोsमला:,
न तरत्यापदं कश्चीद्योSत्र मित्र विवर्जित: .

बुद्धिमानों को चाहिए कि वे संकटकाल के लिए उत्तम मित्र बनावें. इस संसार में कोई मित्र बिना संकट से पार नहीं हो सकता.

५. अपि सम्पूर्णतायुक्तै कर्तव्या: सुहृद बुधे,
नदीश: परिपूर्णोsपि चन्द्रोदमपेक्षते.

ह़र तरह से पूरे होते हुए भी बुद्धिमानों को चाहिए की वे मित्र बनाएं. निज में परिपूर्ण होते हुए भी समुद्र चंद्रमा के उदय होने की अपेक्षा करता है.

( क्रम संख्या २ से ५ के सूत्र विष्णु शर्मा कृत 'पंचतंत्र' से लिए हैं.)
उत्तम मित्र के लक्षण (भरथरी के अनुसार)##########
"पापान्निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं च गूहति गुणानप्रकटी करोति !
आपदगतं च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः !!"

*मित्र अपने मित्र को पाप कार्यों से विरत करता है.

*उसे हित के कार्यों में लगाता है.

*उसकी छिपाने योग्य बातों को छिपाता है.

*अपने मित्र के गुणों का बखान करता है

*संकट के समय मित्र का साथ नहीं छोड़ता.

*अवसर आने पर मित्र को यथोचित सहयोग 'देता' है.
विदुर जी कहते हैं :ययोश्चितेन वा चित्तं निभ्रतं निभ्रतेन वा !
समेति प्रज्ञया प्रज्ञा तयोमैत्री न जियरति !!

जिन दो मनुष्यों का चित्त से चित्त, गुप्त से गुप्त और बुद्धि से बुद्धि का मेल खाता है उनकी मैत्री कभी पुरानी नहीं पड़ती.

Thursday, December 1, 2011

खोना -पाना

#####

धरती में
गुम हुआ
बीज तो
माटी
उगली सोना,
पाना है यदि
तुम्हे प्रिय को
सीखो पहले
खोना..

विस्मृत हो जाये
स्वत्व तो
अपनत्व स्वतः
मिल पायेगा ,
महक विसर्जन
भाव हुआ तो
पल में पुष्प
खिल जायेगा..

देना शायद
पाने का
बस जीवंत सा
अभिनय है,
अनजान सहज बन
विस्मित होना
साक्षात्
ज्ञान परिचय है...


सोलह सिंगार.. (आशु रचना)

# # # # #
हुआ अलविदा पतझड़,लौटी फिर से नयी बहार,
सुर्ख माणक दिखा कर हँसता देखो आज अनार.

बौराई कोयलिया गाती मधुरिम पंचम राग,
चन्दन महक ले आया रति का देहहीन सुहाग.

व्याकुल बेलें डाल रही क्यों पेड़ों को गलहार,
बिरहन के नयनों से झरती अश्कों की क्यूँ धार.

मधुमख्खी ने नीम-पुष्प से चूसा है मकरंद,
कड़वाहट बदली है मधु में घटित हुए ये छन्द.

बेला मोगरा से मदमस्त है सांस और निश्वास,
ह़रसिंगार बहाना है बस, धरा मिले आकाश.

शबनम मोती बन कर बरसी कुदरत पर बेबाक,
जवां हसीं जमीं पर फबती दूब की यह पोशाक.

महुए की मादक महक और पखेरुओं का गान,
उफक पर शफक को देखो क्या सिंदूरी शान.

फूट गयी कोंपलें फिर से, है भंवरों की गुन्जार,
खुशबू आएगी घट में जब और बढेगा प्यार.

फूल खिलेंगे, महकेंगे तब कण कण मधुर सुवास,
मधुप उसी पल मिटा सकेगा अपने दिल की प्यास.

झील बनी है आइना उजला, रूप निखार निहार,
देवी शिव* के संग हुई अब कर सोलह सिंगार.

*पुरुष और प्रकृति से आशय है.