Sunday, December 18, 2011

कंक्रीटी जंगल के शेर....

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हैं आज हम
कंक्रीटी जंगल के शेर,
भूला दिया है
शहर ने
वो गाँव के गली कूचे
पनघट की रंगीनियाँ
चौपाल की संगीनियाँ
वो किसी शहरी कार के
पीछे भागना,
मुंह अँधेरे जागना
खेत में पंखेरुओं पर
गुलेल दागना,
चकोतरे का
खट्टा-मीठा जायका,
गुलदाने का
सुनहला रूप रसीला,
निमोने को देख कर
मुंह में पानी भर आना,
गाज़र का हलवा,
मेरठ की रेवड़ियाँ,
तिलकूट और गज़क,
गिल्ली डंडे का खेल,
जुम्मन और जसिये का मेल,
सत्यनारायण की कथा,
देव देहरियों की महत्ता.
खो गया कहाँ
मेरा बचपन....

देर से सोना,
देर से जागना,
बिना वज़ह ताकना
बस ताकना,
नींद की गोलिया
झूठी सची बोलियाँ,
केक और पेस्टरियां,
हेल्लो हाय
बाय बाय,
प्लास्टिक फूल से रिश्ते,
अपने गैरों से सस्ते,
समझ में ना आने वाले उसूल,
बात बेबात मशगूल,
दिखावा ही दिखावा,
ह़र बात पर मुलम्मा
ह़र बात पर चढावा,
आओ ना लौट चलें...
आओ ना लौट चलें..

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