Thursday, December 8, 2011

द्रवण....

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बहुत अजीब हैं ना परामनोविज्ञान की बातें. हमारे अंतर में कुछ भाव आ रहे हैं और उन स्पंदनों का 'क्वालीटेटिव' सम्प्रेषण दूर बैठे सम्बंधित व्यक्ति तक हो जाता है..चाहे बहुत बारीक डिटेल्स ना पहुँच पाए लेकिन स्थति कि गुणवत्ता अवश्य पहुँच जाती है. जैसे कि हमारी उदासी, खोयापन, ख़ुशी. पीड़ा इत्यादि के एहसास. हम चले जा रहे हैं और किसी नगमे को गुनगुना रहे हैं या उसे सोच रहे हैं और पास के किसी रेडियो पर वही गाना बज रहा होता है. हम किसी 'विषय विशेष' का चिंतन कर रहे हैं, और स्टाल से जिस मेग्जिन को उठाते हैं उसमें उसी पर कोई आर्टिकल छपा मिल जाता है. हैं ना कुछ बेतार के तार !

गत कई बरसों से ये स्पंदन अंतर में घटित होते, गुज़र जाते...लिखने का मन होता, शब्द नहीं मिलते, मानस नहीं होता क्योंकि बहुत ही अंतर्विरोधी से होते हैं ये...कुछ दिल से, कुछ दिमाग से, कुछ इस जन्म से, कुछ पहले के जन्म से, कुछ वास्तविकता से कुछ कल्पना से, कुछ भ्रम-कुछ स्पष्टता..अवचेतन में कहीं कहीं अपनी दृढ सोचों के खिलाफ की भी थोड़ी स़ी बात. दोस्तों ! रचना एक धुंधला सा रूप लेती और ना जाने कैसे फिर क्यों बादल की तरहा बिखर जाती. ज़रूर कुछ मेरी सीमाएं और कुछ अस्तित्व का विधान रहा होगा. सोचता था आज नहीं तो कल ज़रूर लिख सकूँगा...लेकिन बात जहां की तहां.

आज सन्डे की सुबह. युजुअली ऐसी सुबह चाहे अनचाहे मेरे दोस्त मुल्ला के नाम हो जाती है..लेकिन आज तय किया 'नो मुल्लाबाज़ी' आज जो कुछ पढने के लिए जमा किया है पिछले दो सप्ताह से उस पर नज़र डालूँगा.... और पहली ही नज़र पड़ी 'पत्रिका' समूह के चेयरमेन, प्रबुद्ध चिन्तक एवं वरिष्ठ पत्रकार डा. गुलाब कोठारी,जिनका मैं प्रशंसक हूँ, की एक रचना पर. मैं 'एट फर्स्ट' क्रमश: याने लाईन दर लाईन नहीं पढता. बस केमरे के लेंस की तरह मेरी आँख आलेख को क्लिक करती है और करीब करीब 'एसेंस' मेरे ज़ेहन तक पहुँच जाता है ...फिर बांचना होता है तो बांच लेता हूँ...हाँ तो ऐसी क्लिक के साथ एहसास हुआ कि ऐसा ही कुछ (हो सकता है शत प्रतिशत ना हो) तो मेरे सिस्टम में चल रहा होता है.
डा. कोठारी की इस रचना को अपनी सी समझते हुए आप से शेयर कर रहा हूँ. बस शीर्षक दिया है मै ने,शायद यह मेरे द्वारा करने के लिए छूट गया था , हाँ प्रस्तुति को भी थोड़ा मेरे मन माफिक बनाया है लेकिन एक भी शब्द नहीं बदला है, ज़रुरत नहीं थी.

मूल रचनाकार के लिए कृतज्ञता और अहोभाव.
द्रवण : ~~~~# # #
आद्या !
देखते ही तुम को
भर आता है
मेरा मन,
और न देखूं
दो चार दिन
बाहर रह कर,
तब भी
भीगते है रहते हैं
नयन क्यों ?

कैसा है यह
द्रवण मन का
नेत्र कहते
मन की भाषा,
जैसे कुछ रुआंसा.

मन एक है
द्रवण दो
मिलन का भी
बिछोह का भी,
झुक जाती है
मेरी आँखें
देखते ही तुमको,
श्रद्धा से,
शायद
तुम्ही हो
सेतु
मन-आत्मा का.

झिन्झोड़ो इसे
झाड़ दो
परतें सारी
एक एक
न्यारी-न्यारी,
बहा दो इन्हें
दूर दरिया में
गहराईयों में
तभी शायद
उभरेगा
फिर से मन मेरा
द्रवित तो होगा
करूणा भी होगी,
स्नेह रहेगा....
किन्तु हाँ !
न होगा बंधन
मन पर कोई
ममत्व का
आसक्ति का.

शायद तुम
कह रही हो
यह सब-
जब भी कौंधती
आँख में झलक,
तुम्हारे चेहरे की.

जैसे तुम भी
भूल जाती हो
मुझ को
दूर होते ही,
ले चलो मुझे भी
उसी मार्ग पर
पकड़ कर अंगुली.

(आद्या=दुर्गा/शक्ति/देवी)

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