Wednesday, January 25, 2012

होले से चले आता है कौन..

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ख्वाबों में होले से चले आता है कौन,
बेक़रार दिल को यूँ समझाता है कौन.

उदास है ये ज़मीं ग़मज़दा आस्मां,
बिना बदरा बिजुरी चमकाता है कौन.

तआज्जुब करूँ या इजहारे शुक्रिया,
शदफ के दिल में गौहर उगाता है कौन.

आँखें कहती और चुप रहती है जुबां
अबोले असआर मीठे सुनाता है कौन.

कहने को वो वो है और मैं होता हूँ मैं,
साँसे मुझ में उसकी बसाता है कौन.

सुकूं देता हैं एहसास महज़ तेरे होने का,
खनक तेरी ह़र लम्हे सुना जाता है कौन.

ह़र धुन में तेरे नगमे गाये जाता हूँ मैं,
सुरों में हर्फ़-ऐ-नाम तेरे सजाता है कौन.

Thursday, January 5, 2012

सुबह का सूरज मिल कर देखें..

















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आओ साथी !
हम तुम दोनों,
सुबह का सूरज
मिल कर देखें,
निशा सुहानी बीत गयी है,
चद्दर छोड़ें,
नींद को तोड़ें,
दिवस का जीवन जीने हेतु
पुनः आज हम जगना सीखें .........

सूरज के प्रसरित प्रकाश में
ठहरे खिन्न मन से आकाश में
धरती के इस मृदुल हास में.
जाने देखें परखें साथी !
कितने रंग भरे है.....

काल सारथी मारे कोड़े,
दौड़ रहे सूरज के घोड़े,
थोड़े हर्षित व्यथित है थोड़े,
इन तुरंग मुखों से ही तो सारे
ग्रह नक्षत्र झरे हैं......

रंग नहीं पर रंग नृप है
शब्द नहीं पर शब्द कल्प है
रूप नहीं पर सौन्दर्य दर्प है
'होने' 'ना होने' के योग से
दर्शन समस्त उभरे हैं...

(कल्प का प्रयोग 'निश्चय' के अर्थ में किया गया है और दर्प का प्रयोग 'रोब' के अर्थ में किया गया है)

Sunday, January 1, 2012

किये जा रहे हैं प्रश्न प्रलाप :

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कुछ प्रश्न
नहीं होते
अभिव्यंजना
जिज्ञासा की
होते हैं
प्रत्युत
प्रतिक्रियाएं
स्वयं द्वारा
स्वयं के
अहम् पर लगे
किसी आघात-प्रतिघात की
अथवा
कृत्य कोई
कुंठा जनित
प्रत्याक्रमण का ...

ना जाने
प्रारब्ध के
किस वरदान स्वरूप
हो जाता है
प्राप्य
यदि
हमें कुछ ऐसा
नहीं होते
किंचित भी
हम पात्र जिसके ,
दुश्चिंता 'मैं और मेरे' की
कर देती है
विस्मृत
उस शुभ को
और
करने लगते हैं हम
अपरिमित वमन
गरल का
बना कर
कृतघ्नता को
स्थानापन्न
अहोभाव का .....

नैसर्गिक
अमृत अवदान से
हुआ था प्राप्य
भावविहीन शुष्क
नयनों को
अनुभव
आनन्द का,
अतृप्त वासनाओं की
क्रीडा में
हुआ था
घटित
सहज संसर्ग
दिव्य देह का....

प्रेम तो है
वस्तुतः
अनामय,निर्विकार,
अगण्य चिर सत्व ,
काश !ना बनायें
उसको
हम विषयवस्तु
व्यावसायिक व्यवहार की
करते हुए
संकीर्ण आकलन
देने और पाने का ...

ज्योत्सना
पावन प्रेम की
कैसे कर पाती
शीतल
ईर्ष्या संतप्त मन को,
ना जाने क्यों
तलाश रहे हैं
हम
छद्म प्रेम के नाम
अपने ही खोखलेपन को
भरने का उपाय
जन जन में....

डूबे हैं
आकंठ हम
आधिकारिकता ,
मत्सर
एवम
प्रदर्शन के
सघन दलदल में ,
जान कर बने हैं
अनजान हम
तथ्यों और
सत्यों से
किये जा रहे हैं
प्रश्न प्रलाप :
क्या किया तू ने ,
क्या दिया तू ने ,
मतिभ्रम से
हो कर विक्षिप्त
पल पल में....

इंतज़ार...

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प्यास से मरते
इंसानों को
दे देते हैं
तस्वीर दरिया की,
टांग कर उसे
अपनी दरकी हुई दीवाल पर
करते हैं वे बस इंतज़ार
लहर के आने का...

सर्दी से
ठिठुरते बन्दों को
देकर
तस्वीर जलती आग की
पा लेते हैं निजात,
रख कर जलावन पर उसको
करते हैं बस वे इंतज़ार
लपट के उठने का...

रूह में तड़फ हो जिन के
थमा देते हैं उनके
हाथों में किताबें,
कानों को तकरीरें
और
दिलो दिमाग को
झूठे सच्चे टोटके,
पढ़ पढ़ कर
सुन सुन कर
अपना कर जिनको
करते है वे बस इंतज़ार
सुकून के चले आने का...

रोटी कपडा मकान
तालीम सेहत
और
रोज़गार
देने के नाम
थमा देते हैं
ऐलान और नारे
इन्तेखाबत और इन्कलाब के,
करने लगती है
पब्लिक इंतज़ार
चूल्हे से आती रोटी का,
मशीन से आते पैरहन का
गारे सीमेंट से बनते मकां का,
स्कूल, कारखानों और असपताल का..

सत्व और प्रकार.....

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मूरत के
रूप पाने से
पूर्व भी था
पाषाण का अपना
मूल सत्व और प्रकार,
तभी तो
हो सका था उसमें
अंकित बिम्ब
टाँकी की
अंतस का
और
हो पाया था
मूर्तिकार का
सपना भी
साकार...

झीना सा अंतर...

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पत्ता
यदि झर गया
नहीं मानेगा
सत्ता पेड़ की,
हरा भरा दरख्त
क्यों कर
स्वीकारेगा
वुजूद
झरे पत्ते का,
बस
झीना सा अंतर
पत्ता वही
पेड़ वही
देखो ना
विगत का सापेक्ष
कैसे बन जाता है
आज का निरपेक्ष !