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देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...
माना देखे थे
अंधड प्रचंड
लड़े थे ये
बन मित्र अभिन्न
किन्तु
ऋतु का यह कैसा क्रम
कर देता इन को
छिन्न भिन्न..
हुआ एक इंगित
हल्का सा
गिर पड़े
एक दूजे को ढके हुए
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...
कल तक थे
सौम्य श्रृंगार
वे हुए आज
अवांछित भार
आते हैं जब
दिवस लाचार
जाते हैं बिछुड़
बन्धु दो चार ...
नहीं करती सहन
इन्हें धरा भी
अब किस दर
रहे रुके हुए
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...
सालाना इनका
मरना -जीना
साथ सुख दुःख का
झीना झीना
ना हँसना इन पर
ना ही रोना
काश समझ पाए
मूढ़ मन का
कोई कोना.....
वही खिलाता
कोंपलें नूतन
गिराता है जो
पत्ते थके हुए
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...
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