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ग्रेजुएट भाभी करती थी साब को :
बीवी महज़
बीवी ही नहीं
हुआ करती है
संगीनी जीवन की,
जीनेवाली मिल कर
दुःख-सुख में,
साथ देनेवाली
मुआफिक
एक दोस्त के,
मानने वाली
'अपना'
खाविंद के परिवार को,
जैसी आमदनी
करनेवाली ख़ुशी ख़ुशी
इन्तेजाम गृहस्थी का
उसी में,
देनेवाली
सुन्दर संस्कार
बच्चों को,
दिखाने वाली
सही राह
परिवार को,
संभालनेवाली
कुनबे को
वक़्त के धक्कों से ,
कर देनेवाली
सकारात्मक
स्पंदन घर के
अपने मधुर स्वभाव
और
उन्नत संस्कारों से,
साझीदार
जिन्दगी की
ना कि
एक निर्भर प्राणी……
देखा गया था :
अक्सर कहा करती थी:
मैं बीवी हूँ
कोई गुलाम नहीं,
जो संभालूं चूल्हा चौका
दिन भर
तुम लोगों के लिए
करके मुहाल
जिंदगानी अपनी,
जब इतना ही देते हो तो
क्या मैं ……..? (खोल दूँ टकसाल अपनी)
होता क्या है
इन्ने पैसों से
आज के दौर में.
पडोसी के यहाँ आया है
‘एल ई डी' टीवी......और
हम लोग देखते हैं
‘बालिका वधु’
इसी डिब्बे पर,
होने को मन गई
सिल्वर जुबिली शादी की,
मगर कहा जाता है अभी भी:
मेरे नेहर में तो होता है ऐसा
ना जाने तुम्हारे यहाँ
गंवारू पन है कैसा ?
कहती है
देखो ना पड़ोस के जेठालाल को
तनख्वाह के अलावा
उपरी भी खूब बनाता है
तभी तो परिवार को इतना
सुखी रख पाता है
और एक तुम हो….?
जब से तुम्हारे पीछे आई
ना ताता (गरम) खाया
ना ही पहना राता (रंगीन /लाल)
क्या दिया है मुझको तुम ने ?
बस जिन्दगी एक नौकरानी की,
या समझा मुझे मशीन एक
बच्चे जनने की,
तुम थक कर आये हो ना
काम से
तो मैं क्या यहाँ बैठी थी
निठल्ली,
चाहिए ना तुझ को
मुस्कान एक शाम को,
क्यों नहीं चले जाते
पास उस मुई ‘मंजुला’ के
जो पढ़ा करती थी
साथ तुम्हारे
जैसा बाप वैसी ही औलाद
बड़का तो बुद्धू है
'आप' की तरहा
और
बेटी काटती है
कान सब के
'बाप' की तरहा,
जब देखो
मांगें तरहा तरहा की,
कभी चाहिए होती है किताब यह,
तो कभी यह पेन-पेंसिल
टिफिन में 'यह' चाहिए या 'वो'
हम को भी देखो
चलाये जा रहे हैं
साल भर से
वो ही शेड
लिपस्टिक के,
क्या हुआ महीने में
दो-चार सूट
उठा लूँ किसी बुटिक से
मांगती तो नहीं तुम से,
बचाती हूँ घर खर्च से
दिन भर लिखना कवितायेँ ,
और करना पोस्ट
किसी 'अभिव्यक्ति' पर,
कहना तरहा तरह की सखियों का
'वाह वाह'
…'बहुत सुन्दर'
क्या यही है नाम क्रियेटिविटी का ?
पढ़े लिखे हो
करलो ना ट्यूशन दो चार
आएगा कुछ तो घर में
आदर्श और संस्कार
जाते हैं बताये सिर्फ़
आस्था और संस्कार चेनल पर,
जिसकी किस्मत में
होता है जो होना
हुआ करता है बस वही,
यह तो मैं हूँ कि
................................
महसूस किया था मैं ने :
काश भाभीजी सोचती कि
पुरुष-स्त्री गृहस्थी-रथ के
दो पहिये होते हैं-समान से
दोनों के संतुलित चलने से ही
गृहस्थी का रथ
बढे जा सकता है
अपनी मंजिल की तरफ,
निकल जाता है वक़्त
रह जाती है बातें...
जिया जा सकता है
पुर सुकून
ज़िन्दगी को,
जिया जा सकता है
कम में भी,
सुकूं और शांति
ले आते हैं
सौहार्द और सम्पन्नता...
भाभीजान मेरी
बन जाए अगर,
साईकल सर्कस की
एक पहिये वाली ,
भाई साब जी को होगा
लगाते रहना लगातार
पैडल....
रुके जहाँ ...
गिरे बस वहीँ पर,
क्या दे सकेगी सुकून यारों
गृहस्थी इस तरहा की....?
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