Thursday, October 7, 2010

स्वछन्द...(आशु रचना)

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कैसा विषम
यह द्वन्द है
है नितान्त
पराधीन
किन्तु
कहता
निज को
स्वछन्द है...

बिना प्रजा
नरेश नहीं
अनुयायी बिन
धर्मेश नहीं
नेता रहित
जनतंत्र नहीं
नियम उपनियम बिना
स्वतंत्र नहीं,
जुहू के 'बीच' पर
स्वामी घुमाये
स्वान को
या
कुत्ता दौडाए
मालिक को
प्रश्न इस
अजीब का
कोई समुचित
उत्तर नहीं,
दर्पण में
बिम्ब दिखता,
मगर कोई
चित्र नहीं...

आज़ाद हर शै को
घेरे हुए
कुछ दृश्य
अदृश्य
बंध है,
कैसा विषम
यह द्वन्द है,
है नितान्त
पराधीन
किन्तु कहता
निज को
स्वछन्द है...

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