Thursday, October 7, 2010

कच्चा चिठ्ठा 'आदर्श शिक्षक' का...

(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं. Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी. आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ और कवितायेँ इस से पूर्व भी.)

'आदर्श शिक्षक' का राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिला था, अवसर मिला था उनको देखने जानने का...

वे कहा करते थे :

शिक्षक का दर्ज़ा
होता है
माता समान,
करता है वह
छात्रों में
आदर्शों का
बीजारोपण
सुसंस्कारों का
प्रतिरोपण
एवम
व्यक्तित्व का
परिमार्जन...
देता है वह सन्देश :
"निज पर शासन फिर अनुशासन।"
करता है प्रेरित वह
युवा पीढ़ी को
बनने अच्छे मानव
और
नागरिक
करके प्रस्तुत
स्वयं के उदाहरण....
होता है
समर्पित वह
करने निर्माण
कल के भारत का,
सीखा कर अंतर
अपने छात्रों को
संकीर्ण वैयक्तिक स्वार्थ और
सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय
परमारथ का...
होता है
प्रतीक वह
आंतरिक एवम बाह्य
स्वच्छता का,
एक प्रकाश स्तम्भ
वैचारिक उच्चता का....

देखा गया था :

गुरूजी रोज़ शाम
मौज मनाते थे
व्हिस्की में कभी भी
सोडा ना मिलाते थे,
महिला सह-अध्यापिकाओं संग
रंगरेलिया मनाते थे,
शिक्षा निदेशक को
करने प्रसन्न हेतु
अपने प्रेम संबंधों को
भुनाते थे,
विद्यालय के संसाधनों के
निजी प्रयोग हेतु
ना हिचकिचाते थे,
गाहे बगाहे छात्रों से
'यह' 'वह' सब मंगाते थे,
छात्रों को दिल खोल कर
अंक वे लुटाते थे,
अन्कार्थिनों को बेझिझक
स्व-अंक में बैठाते थे,
कक्षा में तो
मात्र समय-चक्र घुमाते थे,
ट्यूशन के लिए
सटीक वे
पृष्ठभूमि बनाते थे,
कसबे की राजनीति में
शतरंज अपनी बिछाते थे,
वक़्त बेवक्त
किसी प्यादे से वे
वजीर को मरवाते थे,
पांडव वंशज थे शायद
द्युत क्रीड़ा में अपना
तन-मन-धन लगाते थे,
'कजिन' दुशासन की तरहा
यदा कदा
चीर हरण कर जाते थे,
परचा आउट करके
किया करते थे वे
असीम धनार्जन,
अनुत्तीर्ण को कराके उत्तीर्ण
करते थे
महान सृजन,
गुरु दक्षिणा में
अंगूठे को छोड़
सब कुछ
लिया करते थे,
जाति संप्रदाय
अगड़े पिछड़े का
भेद भूल
मिलता सो
गृहण किया करते थे,
ऐसे महान उस्तादजी
हरफन मौला
हर चालाकी में
माहिर थे,
कैसे पा सके
ख़िताब-ओ-इनाम वे
वजहात सारे
जग जाहिर थे...

मेरे एक पगले से साथी 'राही' मासटर ने कहा था एक दिन :

समाज के
मेम्बरान को
किया गया था
स्क्रीन
बदले जमाने की
फेक्ट्री में,
जो नकारा थे
और टेढ़े मेढ़े थे
अन्दर में,
भरती हुए थे
ज़्यादातर
पुलिस में
या
लग गए थे
मास्टरी में...


(लिखने वाला खुद एक अध्यापक है..अतिशयोक्ति के साथ इस अभिव्यक्ति का उदेश्य मनोरंजन के साथ एक सन्देश भी देना है अपने भटके हुए साथियों को....किसी को दुःख पहुँचाने का लेश मात्र भी इरादा नहीं है...किसी को भी बुरा लगे तो ऐसे लोगों को येन केन प्रकारेण बदलने की चेष्टा करना...मुझे ना कोसना...मैने तो ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया...

मेरा स्नेह और सम्मान उन शिक्षक शिक्षिकाओं के लिए... जो बहुत थोड़ी तादाद में पाए जाते हैं..अपने फ़र्ज़ को अपना ईमान मानते हैं....उसे पालन करते हैं..... जिन पर मुझे, समाज और देश को गर्व है।)

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