Sunday, October 24, 2010

अलविदा

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भोर के स्वप्न में
कर रहा था मैं
अलविदा
अँधेरे को
गाते हुए
राग प्रभाती,
हो रहा था
उत्सुक
करने स्वागत
नयी प्रातः का
आरम्भ जिसका
होगा
सूरज के दिए
सात रंगों से
ओंस की मासूम
बूंदों में...

कलरव
पक्षियों का
सुनाएगा
दिव्य संगीत,
फिजाओं में बसी
महक कुदरत की
कराएगी आभास
मेरे होने का.....

नयी उर्जा
देगी हौसले
कुछ कर गुजरने के,
मंदिर में हो रही
आरती के सुर
ले जायेंगे
सन्निकट
प्रभु के......

मधुरिम स्मृतियाँ
निशा की
देंगी एहसास
इंसान होने का,
हुआ है घटित जो
अचेतन
और
अवचेतन में,
समेट कर उसको
चल पडूंगा राह
चेतन होने की
लिए साथ
तिमिर की
शांति का .....

प्रकाश के शौर्य में
हो कर शुमार
बढ़ चलूँगा
गंतव्य को
जो लुप्त था
अब तक
अन्तरंग में,
कहकर तुम को
अलविदा
लौट आऊंगा
अपने घर को
ताकि जा सको
तुम भी
घर अपने...

हाँ होगा मिलन
जिस परमात्मा से
वह वही है,
तुम में भी...
मुझ में भी;
यह अलविदा !
ध्वनि नहीं
कोई बिछोह की,
आवाहन है
अंतर्यात्रा का
बन जाती है
जो अनायास ही
सहयात्रा....

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