Monday, June 20, 2011

बीज में बरकत हो गयी...


# # #
कच्ची कली फूल में देखो बदल गयी
भंवरे की बात वो सारी समझ गयी,
देखो ना मौसम का करिश्मा गज़ब
कोंपल थी के शज़र वो सरमस्त हो गयी
देखो ना बीज में बरकत हो गयी...

पाजी हवा बार-बार देखो सता गयी
हर झोंके से वो तो चिलमन हटा गयी
आसमां में उम्मीदों को पसार गयी
सिफ़र एक सब से बड़ी दौलत हो गयी
देखो ना बीज में बरकत हो गयी...

तशनगी जिस्म की ज्यूँ जेठ की धरती
सदियों सदियों से थी मानो जैसे परती
प्रीत मेघ की एक बौछार से बूँद तृप्त हो गयी
देखो ना बीज में बरकत हो गयी...

महंगा होता है हंस हंस के बतलाना
लोगों के दिलों का तो जलना जलाना
बिना बात के कित्ती बातें बनाना
किरकिरी आँख की परबत हो गयी
देखो ना बीज में बरकत हो गयी...

(बरकत=वैफल्य, बढती. सरमस्त=उन्मत/मदोंमत. सिफ़र=शून्य)

(मूल रचना राजस्थानी में कल्याण सिंह जी राजावत की है, मैंने इसे हिन्दुस्तानी (हिंदी/उर्दू मिश्रण) में रूपांतर/भावानुवाद करके पेश करने की कोशिश की है..)


Mool aalekh :

बीज में बरकत होगी रे.

(कवि : कल्याण सिंह जी राजावत)

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कळी फूल में बदळगी,
भंवराँ री सा बात समझगी,
देखो रुत रो एक अचंभो,

दोबड़ी दरखत होगी रे,
बीज में बरकत होगी रे.

नुगरो पवन कुचरणीगारो,
हर झौंके निरखै उणियारो,
आसा रो आकास पसारयो,

निजर तो सरवत होगी रे,
बीज में बरकत होगी रे !

तन री तिरस् जेठ री धरती,
जुगाँ जुगाँ स्यूं रेहगी परती,
प्रीत-मेघ रै एक हबोलै,

बूँद स्यू तिरपत होगी रे,
बीज में बरकत होगी रे !

मूंघो होवे हंस बतलाणों,
लोगाँ रे बिच कुबद कमाणों,
देखो जग़ रो बात बणाणों,

कांकरी परबत होगी रे,
बीज में बरकत होगी रे !

(दोबड़ी=कोंपल, दरखत=पेड़, नुगरों=शैतान, कुचरणीगारो=छेड़-छाड़नुमा शैतानी-pin pricking , उणियारो=चेहरा, सरवत=सर्वत्र, हबोले=झोंके/तेज़ बौछार से मतलब है, मूंघो=महंगा, कुबद=विवाद,
कांकरी= ढेला.)

Friday, June 17, 2011

आवरण....... (आशु रचना)

# # #
सत्य
नग्न
रहने दो मित्रों !
औढाओ ना
उस पर आवरण,
सत्यम
शिव सुन्दर लगेगा
हो, ना हो चाहे
आभरण...

क्रांतिपुरुष
बढ़ जाओ आगे
पीछे चलेंगे
कोटि चरण,
हैं बुलंद
हमारे इरादे
विजय करेगी
अपना वरण..

क्यों झुकेंगे
समक्ष तेरे
हम को बस
उसकी शरण,
प्राण लिए हैं
हम हथेली
हम को क्या अब
जीवन मरण..

देश हित की
लौ लगी है
दृढ रहेंगे
आमरण,
शहादत की
आकांक्षा हम को
वही तो है
भावसागर तरण...

हसीं जिंदगानी हो गयी.....


# # #

मिट गया वो जिसपे तेरी मेहरबानी हो गयी
जो भी हुआ अच्छा हुआ ख़त्म कहानी हो गयी.

ठोकरें खायी हजारों,मायूस हुआ जो दिल ही था
सरे राह कोई मिल गया, ऐसे जौलानी हो गयी.

अश्क तेरे गिर पड़े थे, हुए जुदा थे हम जिस पल
सफ़र मेरे उस बेमंज़िल में, एक निशानी हो गयी.

संग रकीब का रास आया तो खुश थे तुम बेइंतेहा
क्या हुआ जब भी देखा हम को नम पेशानी हो गयी.

छुप छूप कर आना वो तेरा लखना मेरी बदहाली
कहने को बर्बाद हुए हम, हसीं जिंदगानी हो गयी.

(जौलानी=फुर्ती/चपलता)

Tuesday, June 14, 2011

चुगे अंगार चकोरी ने थे

# # #
चुगे अंगार
चकोरी ने थे
चाँद कहाँ फिर
सो पाया था,
रातों गाती रही थी
बुलबुल,
व्यथित गुलाब कहाँ
सो पाया था...

खिन्न दिशाओं ने
पलकें झपकी थी,
क्षितिज आँगन
चुभती चुप्पी थी,
उषा आई थी
सज कर दर पे,
सूरज कहाँ
मुस्का पाया था...

सुस्त हो गए थे
सब तारे,
अश्रुपूरित
नयन तुषार के,
पवन सुगंध
चर्चे करते थे
मिलन-विरह
निर्मम प्रहार के,
लहरों की लोरी को
सुनकर
कहाँ सरोवर
सो पाया था...

सतरंगी
धनुष घट
फूट गया था,
पनिहारन का भ्रम
टूट गया था,
झांझर की मीठी
झम झम में
मन तट का कहाँ
खो पाया था...

सोते पीड़ा के
बहे चले थे,
चमन दर्द के
खूब फले थे,
यादें आती रही
रात भर,
रिसता ज़ख्म कहाँ
सो पाया था...

कसमें वादे
खूब हुए थे,
अरमां से
मंसूब हुए थे,
कंधा हाज़िर रहा
मगर,
यह नाज़ुक दिल कहाँ
रो पाया था..



Friday, June 10, 2011

बेड़ियाँ और हथकड़ियां...

# # #बिखरना मत
अरे नादाँ,
सुनो रे
अश्रु यादों के,
लौट चल फिर से
अंतर में
भूला अम्बार
वादों के...

फूल के
प्राण सत्वों को
दुनियां
नोच कर
मसल डालेगी,
तुम्हारे दर्द की
खुशबू
सभी को
मचल डालेगी,
बढ़ा चल
मत भटक राही
बुलंदी ला
इरादों में,
लौट चल फिर से
अंतर में
भूला अम्बार
वादों के...

क्यूँ ढूंढता है तू
वो खोयी
लुत्फ की घड़ियाँ,
यादों की जंजीरें
बन गयी
बेड़ियाँ और हथकड़ियां,
डुबाता है क्यों
खुद को
भूत के वृथा
प्रमादों में,
लौट चल फिर से
अंतर में
भूला अम्बार
वादों के...

अनन्त की
सीमा का
नहीं होता
कोई भी किनारा है,
अंधेरों का
सदा साथी
रहा करता उजियारा है,
तत्व को पहचान
तू बन्दे
क्यों उलझा है
स्वादों में,
लौट चल फिर से
अंतर में
भूला अम्बार
वादों के...

Thursday, June 9, 2011

पांडित्य..

# # #
मेरे पांडित्य के
अंधे अभिमान ने
टोका था
रोका था
अनुभूतियों को
अभिव्यक्ति के लिए
अपने से
निर्मल
शब्दों को
चुनने से
और
मेरे भारी भरकम
प्रेम विहीन
असहज
अक्षर योगों ने
संवेदना संग
करके
दुर्व्यवहार,
बना दिया था
मूक वधिर
उसको...

Wednesday, June 8, 2011

अनुगूंज...

# # #
करके अस्वीकार
स्वयं को
किये जा रहे हो
प्रतिपादन
अधूरे सत्यों का
करते हुए
विवेचन
एवम
वर्णन
औरों का,
भटकते हुए
घोर अंधेरों में
लगती है
जब जब
टक्कर,
चोट की
प्रतिक्रिया में
बरसाते हो
अपशब्द बेचारे
पत्थरों पर
करते हुए
भर्त्सना
निरपराध
राहों की,
सुन कर
अनुगूंज
अपने ही अन्तर में
उमड़ते
मूक शब्दों की,
हो जाते हो रक्तिम
क्रोध एवम कुंठाओं में,
पीसकर दांत
भींच कर मुठ्ठियाँ
नोचते रहते हो
बाल अपने ही,
या तोड़ते हो
पंख
उन्मुक्त उड़ते
पक्षियों के,
निरखते
क्यों नहीं
कभी तुम
मेघ रहित गगन
निजात्मा का !

Tuesday, June 7, 2011

सो जा मेरी वृथा कल्पना सो जा..

# # #
देखो ना
यह रात ढाल चुकी
घड़ियाँ कितनी
रही है बाकी,
वीरां पड़ी है
मधुशाला अब
दगा दे गयी
तेरी साकी,
किन किन बातों में
उलझा तू,
सो जा मेरी
वृथा कल्पना सो जा..

मीठे स्वर में
लोरी गाकर
जग ने तुझे
सुलाना चाहा,
मस्त अदाओं से
रीझा कर
अपना तुझे बनाना चाहा,
सो ना सका था
तू एक प्यासा
सुखद स्पर्श का ,
अनुभूतियों को
भूल भाल कर
सो जा मेरी
सजग चेतना सो जा...

पीकर विस्मृति के
तू प्याले,
रोक कटु समृतियों के
ये काफिले,
अंत कर दो
इस दुखद सफ़र का
कर सदुपयोग
इस शेष प्रहर का,
थपकी देकर
तुझे सुलाता,
सो जा मेरी
ह्रदय वेदना सो जा...