Wednesday, June 8, 2011

अनुगूंज...

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करके अस्वीकार
स्वयं को
किये जा रहे हो
प्रतिपादन
अधूरे सत्यों का
करते हुए
विवेचन
एवम
वर्णन
औरों का,
भटकते हुए
घोर अंधेरों में
लगती है
जब जब
टक्कर,
चोट की
प्रतिक्रिया में
बरसाते हो
अपशब्द बेचारे
पत्थरों पर
करते हुए
भर्त्सना
निरपराध
राहों की,
सुन कर
अनुगूंज
अपने ही अन्तर में
उमड़ते
मूक शब्दों की,
हो जाते हो रक्तिम
क्रोध एवम कुंठाओं में,
पीसकर दांत
भींच कर मुठ्ठियाँ
नोचते रहते हो
बाल अपने ही,
या तोड़ते हो
पंख
उन्मुक्त उड़ते
पक्षियों के,
निरखते
क्यों नहीं
कभी तुम
मेघ रहित गगन
निजात्मा का !

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