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सुबह एक मित्र से बात हो रही थी, विषय थे : प्रदुषण एवं पर्यावरण..... उर्जा की बचत..... तथाकथित वैशवीकरण..बाज़ार व्यवस्था...उपभोक्ता संस्कृति से उपजे विरोधाभास इत्यादि. वार्तालप में एक हल्का फुल्का सा शगूफा उभरा. हम कह रहे थे, हम गाड़ियाँ...सिंथेटिक के प्रयोग....हवा-धूप रहित मकानों...क्रेडिट कार्ड्स के उपयोग, अंधाधुंध बिजली और पेट्रोल की खपत.....अंधी प्रतियोगिता.........जलन.... .....खुदपरस्ती....शब्द-बाज़ी इत्यादि के द्वारा पहले नाना प्रकार की समस्याएं पैदा करते हैं और फिर उनसे निजात पाने के लिए तरह तरह के आन्दोलन/कैम्पेन शुरू करते हैं.
इसी दौरान एक मित्र ने मुल्ला का यह किस्सा बयाँ किया....जिसमें स्थिति पर बहुत ही सटीक व्यंग ज़ाहिर हो रहा था....थोड़े मोड़े शब्द देकर आप से शेयर कर रहा हूँ...
मुल्ला का फलसफाना रियलायिज़ेशन.......
दोपहर से थोड़ा पहले, जब धूप ने अपने वुजूद को जताया था, मुल्ला नसरुद्दीन शायद अपने क्रेडिट कार्ड के वसूली एजेंट्स की मार से बचने मस्जिद और मंदिर की किसी साझी लोकेशन के आसपास मंडरा रहा था...इन सबों से बचने के लिए ऐसे इलाके बहुत 'सेफ' होते हैं ना. देखा कि पंडित परमानन्द और मौलवी हकीक़त अली चढ़ावे के सामान को कहाँ बेचने से अच्छी कीमत मिलेगी, इस मसले पर बड़ी इंटिमेट गुफ्तगू कर रहे थे. उन्ही के पीठ पीछे मुल्ला का फरजंद फज़ल अली पंडित की सुपुत्री कुमारी गोमती से आँखें लड़ा रहा था, मस्जिद में सफाई करने वाला अकील
मंदिर के दरबान राम सिंह के साथ खैनी शेयर कर रहा था, काले खान हज्जाम से पंडित का छोटा भाई परमेसर और मौलवी का साला क़यामत अली चम्पी के चार्जेज पर सांझा नेगोसिएशन किये जा रहे थे. दुनियावी बातें, शास्त्रों/किताबों की बातों से ज्यादा साम्प्रदायिक एका कायम करती है, इन सब बातों से ज़ाहिर होता है. आदत से मजबूर हूँ, मासटर हूँ ना, ट्रेक भूल गया...बात मुल्ला की थी और मैं ले बैठा बात कोई और, जैसे कई कम्युनिटी में लिखनेवाले दर्द की बात करते करते अनजान में उसे ही हास्य की बात बना देते हैं.
खैर, मुल्ला चले जा रहा था. रास्ते में उसने एक फटेहाल इन्सान को देखा जो रो रो कर अपने नसीब को कोसे जा रहा था. अल्लाह ताला से उसे शिकायत थी कि उसको इतनी गुरवत क्यों दी...उसे गरीब क्यों बनाया ? मुल्ला उसके करीब गया और पूछने लगा, "क्या बात है भाई, इतना मलाल क्यों ?"
गरीब ने अपना फटा पुराना झौला दिखा कर कहा-"मेरे पास कुछ इतना भी नहीं जो इस झौले में समा सके. यह झौला ही मेरे एकलोता
सरमाया है."
मुल्ला को उसकी हालत पर तरस आ गया. अचानक उसने गरीब के हाथों से झोला झपट लिया और भागने लगा. अपना सरमाया सारे बाज़ार लुटते देख गरीब जार जार रोने लगा. अब वह पहले ज्यादा दुखी हो गया था, मगर कुछ भी नहीं कर सकता था, मजबूरी थी. रोता हुआ, वह फटेहाल इंसान खुदा और किस्मत को कोसता हुआ अपनी राह चल पड़ा.
मुल्ला ने बीच सड़क उस झौले को रख दिया. जैसे ही गरीब ने झौले को देखा, ख़ुशी से उस तक दौड़ा आया. झौला पाकर उसकी ख़ुशी का अंदाज़ा नहीं था. गरीब को ख़ुशी से झूमता देख, उसे हँसता मुस्कुराता देख, खुदा का शुक्र अता करते देख, बाग़ बाग़ हुआ देख... मुल्ला ने अपना फलसफाना रियलायिज़ेशन किया, " किसी को ख़ुशी देने का यह भी एक तरीका है."
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