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हुई विचलित
दृष्टि,
औझल हो गया
सत्य,
गिर गया
स्वयम के
खनित
खड्ड में
चंचल मन,
नहीं त्यागता
अज्ञानी
स्व पीडन की
कुटैव,
करता रहता
चिंतन
निरर्थक,
रहता गंवाता
ऊर्जा संजीवनी
होकर
विकारों के
वशीभूत,
तथापि
करता रहता मैं
यत्न अनथक
ना मुरछाए
मेरा यह
मन,
जागता हूँ
प्रतिक्षण
करने
चैतन्य के
दर्शन....
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