Wednesday, April 14, 2010

मेहंदी रची हथेलियाँ.........

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मदहोश थे
हम
वादी-ए-कश्मीर में,
खुला खुला था
आसमां ,
खुशबू थी
झील की ;
मुस्कुराते
पत्ते,
महक
फूलों की,
सुगंध
केशर की
खिला रहे थे
तन मन........

पूछा था
मैने उसको,
ऐसी मादकता
है कहीं और
कायनात में ?
निहारा था
उसने
अपनी झील सी
गहरी आँखों से
मुझ को,
और
रख दी थी
अपनी मेहंदी रची
हथेलियाँ,
चुपके से
मेरे
चेहरे के आगे..........

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