Monday, April 5, 2010

तदब्बुर....(आशु रचना )

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तदब्बुर की
बातें है होती
अधूरी,
जो है
वह
बस
यहाँ और
अभी है.........

दिल कि सुनो
पाजी जेहन है
जानां,
मोहब्बत के
लम्हे
यहाँ और
अभी है......

खुद को
समझते हो
खुदा से भी
ऊपर,
घड़ियाँ कल की
हुई क्या,
अपनी
कभी है........?

छोड़ो ये
सारे
दस्तूर-ओ-रस्में,
पहलू में मेरे
खुशनुमा
महज़बीं है.......

फ़िक्र कल की
करें क्यों
ऐ प्रीतम !
कभी ना
कभी तो
मरते
सभी है.......

(अल्फाज़ की कारीगरी समझिये, सोचों की बात हो तो यह बस एक पक्ष है, सम्पूर्ण बात नहीं .....मुझे तदब्बुर, तदबीर और तकदीर किसी से भी इन्कार नहीं...)

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