Saturday, July 2, 2011

और बणगी फूटरी (Beautiful) सी ग़ज़ल...


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मं ह़र म्हारो आइनों, कोर कागद सा रेह गया.
नक़ल ना कोई मंड पायी,मूळ जिनगाणी रेह गयी.. (विनेश सर)

(मैं और मेरा आइना कोरे कागज़ से रह गए. कोई भी प्रतिलिपि उस पर नहीं उभरी, जीवन में मौलिकता का अस्तित्व बना रह गया)

परनिंदा करतां करतां जीभड़ली थांरी घस गयी,
कडुवी बात्यां पैठ गयी, मधरी बाणी रेह गयी... (महक)

(परनिंदा करते करते तुम्हारी जिव्हा घिस गयी. कडवी बातें मन के भीतर पैठ गयी और मधुर वचन बाहर ही रह गये.)

सीरो खावंता दांत घिस्या हुणी अणहूँणी हो गयी,
ख़तम हुयो कद को औ खेलो, बाकी का'णी रह गयी. (मधु)

(हलुआ खाने से दांत घिस गये, जो होनी थी वह अनहोनी हो गयी. जो भी हुआ कभी का ख़त्म हो गया बस अब तो कहानी ही बाकी रह गई)

जण जण रा मन राखती बैश्या बाँझड़ी रेह गयी,
बळद बापड़ो थक मरग्यो, सूनी घाणी रेह गयी... (अर्पिता-नजमा)

(नाना प्रकार के मर्दों को खुश करने की 'स्प्री' में बेचारी वैश्या माँ नहीं बन पायी* : *यह एक राजस्थानी कहावत का रूपांतरण है. अरे ! कोल्हू का बैल चक्कर लगाते लगाते थक कर मर गया और कोल्हू सूना रह गया.)

खुद रो लैणे घरे बैठगी, म्हासूँ भी हिस्सो काट्यो,
जो बच गी म्हारै हिस्से री, वा भी थाणी रै(रह) गयी ! (विमलसा)

(एक कहावत है - मेरा तो मेरा, तेरे में भी मेरा हिस्सा !!
अपना तो ले कर घर बैठ गयी और मेरे में से भी हिस्सा काट लिया !
यानि जो मेरे भाग का था, वो भी कब्ज़ा लिया !)

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