(एक पत्रिका में इस कविता को पढ़ा, भाव और सहज अभिव्यक्ति अच्छी, लगी शेयर कर रहा हूँ. रचियता अनाम है.)
# # #
समझ में आती नहीं ये,
इक जरा सी बात क्यों !
अपना रोना और हँसना,
दूसरों के हाथ क्यों !
गैर के हाथों में अपनी,
कश्ती की पतवार है.
किस तरफ ले जायेंगे,
यह सोचना बेकार है.
ह़र कदम पर बन के रहबर
रहते अपने साथ क्यों !
प्यार की नज़रों से देखा,
और हंसकर रख दिया.
बेरुखी अपनी दिखाई,
और रुला कर रख दिया.
है भला औरों के बस में
अपने दिन और रात क्यों !
अपने पावों से चले
क्यों दूसरों के रास्ते ?
अपनी सारी ज़िन्दगी क्यों
दूसरों के वास्ते ?
बदले में मायूसियों की
मिलती है सौगात क्यों !
दूसरों के हाथ में
तकदीर अपनी देखना.
दूसरों की आँख में,
तस्वीर अपनी देखना.
बन्धु अपने आप से
होती नहीं मुलाक़ात क्यों !
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समझ में आती नहीं ये,
इक जरा सी बात क्यों !
अपना रोना और हँसना,
दूसरों के हाथ क्यों !
गैर के हाथों में अपनी,
कश्ती की पतवार है.
किस तरफ ले जायेंगे,
यह सोचना बेकार है.
ह़र कदम पर बन के रहबर
रहते अपने साथ क्यों !
प्यार की नज़रों से देखा,
और हंसकर रख दिया.
बेरुखी अपनी दिखाई,
और रुला कर रख दिया.
है भला औरों के बस में
अपने दिन और रात क्यों !
अपने पावों से चले
क्यों दूसरों के रास्ते ?
अपनी सारी ज़िन्दगी क्यों
दूसरों के वास्ते ?
बदले में मायूसियों की
मिलती है सौगात क्यों !
दूसरों के हाथ में
तकदीर अपनी देखना.
दूसरों की आँख में,
तस्वीर अपनी देखना.
बन्धु अपने आप से
होती नहीं मुलाक़ात क्यों !
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