Friday, November 5, 2010

प्रेक्टिकल...

# # #
जनतंत्र में
हेतु संचालन
देश के,
चुना है
जनता ने,
राजनीति बाजों को,
बना कर
नेता और मंत्री..
और
करने सहयोग
उनका
उपलब्ध है
एक अमला
बाबू या हो संत्री...

करने रक्षा
सीमाओं की
रख रखी है
जमीन
आसमां
समंदर की
विशाल फौजें,
मरते हैं
जवान
बोर्डर पर
अफसर मनाते
मौजें...

आजाद भारत का
कानून
जिस में
बहुत छेद हैं,
एक ही बात के
ना जाने कितने
भेद है,
निकल सकती है
जिससे
पूरी संख्या
यहाँ के
नागरिकों की,
पड़ोस से आये
आतंकियों की,
विदेश से आये
ड्रग माफियों की....

दीपावली का दिन,
सब चाहते हैं
रहना
प्रसन्न और
प्रमुदित
ओढ़ के चाहे
आवरण,
शांति और
सौहार्द का
बनाये
रखते हैं
वातावरण...

निकला है एक
प्रोफेस्सर
लेकर गाड़ी अपनी
करने दर्शन
देवी के,
रोकता है
एक पुलसिया
हाथ अपना
उठा के,
एक छोटा केस है
सिग्नल वायोलेशन का,
देना होगा
छोटा सा जुरमाना
दीवाली कान्ग्रेचुलेशन का,
दीजिये बिन रसीद फाईन
या दीजिये लाईसेंस अपना,
जाईये कोर्ट में
और कहिये वहाँ
जो भी है कहना...

कहता है
अध्यापक
ज्ञाता
शास्त्रों,
मनोविज्ञान,
कानून का,
यहाँ कोई भी तो
नहीं सिग्नल
फिर फाईन
किस जूनून का,
रसीद क्यों नहीं देते
स्पष्ट जरा कीजिये
हँसता है पुलसिया
ज्ञान मत दीजिये,
साहेब और भी धाराएँ
सकती है केस में लग,
कोर्ट दौड़ने में
घिस जायेंगे
आपके ये नाज़ुक पग..

दिन है दीवाली का
खुशिया मनाईये,
हमारे भी बाल-बच्चें है
बख्शीस समझ
दे जाईये,
अरे कहाँ गई
गर्मी आपकी
जब चाट लिया था
नेताओं ने
सब कुछ
कोमंवेल्थ खेलों की
तैय्यारी में,
कहाँ गया था
ज्ञान संज्ञान आपका,
मुंबई जमीन की
दूकानदारी में,
जिसकी लाठी है
भैंस उसीकी है सर,
इल्म किताबी आपका
होता है बस बेअसर,
आम आदमी से
जुदा खुद को ना बताईये,
बंद कर रोना झींकना
काम अपने पे जाईये...

त्यौहार के दिन
ना करिए मूड ऑफ़
खुद का भी और मेरा,
मनेगी दीवाली लोकप में
होगा वहीँ तुम्हारा सवेरा...

प्राध्यापक
सोच रहा था
फ़ोन कमिश्नर को
लगाऊं,
इस पुलसिये को
बदसलूकी के
खातिर
डांट तनिक लगवाऊं..

कमिश्नर की तरह
फ़ोन भी उनका
व्यस्त था,
सरकारी गुंडों का
कप्तान बना
वह भद्र पुरुष भी
शायद
त्रस्त था...

मासटर से ज्यादा
समझदार था
चालक उनका,
देकर बख्शीस
छुड़ाया था
दामन उनका
और
खुद का...

उवाच ड्राईवर का था,
क्यों खुद को
किसी के एहसान
तले दबाएँ,
बन कर
साधारण शहरी
साहेब त्यौहार मनाएं,
आज के दिन
मालिक
खुशियों के
दीप जलाएं,
ईमानदारी है
किताबों में,
आज तो
क्यों ना सरजी
प्रेक्टिकल में
चले आयें...

देखा है मैने
बेहया,बेईमान
ऐय्यास चेले आपके
पांव छूने आते हैं,
खुश कर के
आपसे भोले शंकर को
ढेरों आशीर्वाद
ले जाते हैं...

भरे हैं आप से
सच्चे इन्सान कई,
हिन्दोस्ताँ के
हर कोने में,
कागज काले करते हैं
महज़ फितूर अपना
धोने में ....
पढ़कर लिखा
आपका
सब विभोर हो जाते हैं,
झाड़ के पल्ला अपना
फिर से
चोर हो जाते हैं...

सड़ गई है व्यवस्था,
आप भी इसे चरमरायिये,
आदर्श की बातें छोड़
गिरती दीवारों को
एक धक्का
और लगाईये....

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