Monday, November 8, 2010

तेरा भी तो यही हाल है....

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एक सेठ साहब की धर्मपत्नी का असामयिक निधन हो गया। कुछ सालों तक तो सेठ साहबअकेले रहे. अधेड़ावस्था , कोई लड़की मिले नहीं जो अध-बूढ़े का हाथ थामे. आखिर एक रिश्ता आया, और हमारे सेठ साहिब परिणय-सूत्र में बंध गए. नयी नवेली सुंदरी द्वितीय पत्नी, बूढ़े सेठ को कुछ समय बाद मन-माने नाच नचाने लगी. सेठ उसकी हर फरमाईश पूरा करने लगा, मगर उसको आंतरिक ख़ुशी नहीं दे पाता. सेठानी परिस्थितिजन्य 'ब्रोड -माइंडेड ' हो गई. बदलते साथी कार्यक्रम चलने लगा.सेठ दिन भर काम धंधे में व्यस्त रहता, फिर उम्र का तकाजा भी था. ‘इल्लिटरेट किन्तु श्रीयूड़’ सेठानी का ‘न्यूली फाउंड लिबरेशन ’ अपने जलवे दिखाने लगा. मन की जवान सेठानी, ‘बोल्ड अंड ब्यूटीफुल ’ थी, मगर दिमाग के लिए कहा जा सकता था 'ऊपर का माला' खाली था. उसके मस्तिष्क में ‘शून्यता’ थी.

एक मनचले ठग ने 'ऑपोरच्यूनिटी ' को 'एक्सप्लोर ' करना चाहा. चिकनी चुपड़ी बातों, शेर -ओ-शायरी, तोहफों,शारीरिक सौष्ठव और सौंदर्य इत्यादि से उसे रिझाने लगा.
वर्जित फल (फॉरबिडेन फ्रूट ) का स्वाद जो एक बार चख लेता है, बज वक़्त उसका आदी हो जाता है. सपने भी रंगीन होने लगते हैं. कुछ कुछ ऐसा ही हाल हमारी नायिका का हो गया था. नौजवान ठग का जादू सर पर चढ़ कर बोलने लगा था. अब सेठानी साहिबा को उसकी हर बात मनभावन और सही लगने लगी थी. ठग ने मौका देख कर एक प्रस्ताव रखा, “क्यों ना कीमती माल समेट, उस शहर से रफूचक्कर हुआ जाये....और यहाँ से कहीं दूर जहां तुम हो और मैं हूँ, कोई आशियाना बनाया जाये....चाँद -सितारों की छांव में खुल कर दिल की हसरतों को अंजाम दिया जाये...प्यार को बढाया जाये....और उसे परवान चढ़ाया जाये."

ठग फिर बोला, " जानम !दिन में तो कुछ पल खुद के लिए चुराते हैं, मगर डर डर के मिलना होता है.....रातें वीरान होती है....अब नहीं रहा जाता.....नहीं सहा जाता." कह कर मोहर्रमी सूरत बना आँखों में प्यार का दरिया लहरा कर, प्रेमी प्रेमिका के नयनों में झांकने लगा. लगा कहने, “जीवन में क्वालिटी ही नहीं क्वांटिटी भी तो चाहिए.”

बेवक़ूफ़ सेठानी को ठग की बातें बहुत ही मनभावन और दिल को छूनेवाली लगी.वह भी कहने लगी, “सच कहते हो तुम जानू, अब जुदाई सही नहीं जाती. बूढ़े सेठ को देखते ही वितृष्णा होती है. कहाँ तुम और कहाँ वह. दिन भर दूकान में गुड़, तेल और मिर्च के सौदों में उलझे रहना, बस रुपैया रुपैया ही सोचते रहना और रात में बही खातों का हिसाब लेकर बैठ जाना. यह कोई लाइफ है…कोई फिज्ज़ नहीं….आउटिंग तो तौबा तौबा, ज्यादा से ज्यादा शनि-मंगल को मंदिर चले जाना….आखिर मेरे भी कोई अरमान है…अब देरी ना करो…..कल सेठ मंडी जा रहा है तीन-चार दिन के लिए.
अच्छा मौका है. कल रात ढलने पर चले आना, मैं सब कीमती समान-जेवर बाँध कर तैयार मिलूंगी….फिर हम अपने सुहाने सफ़र के लिए निकल पड़ेंगे.”

ठग बहुत प्रसन्न हुआ. प्रसन्नता के इन क्षणों को दोनों ने ‘टू देयर बेस्ट’ सेलिब्रेट किया और ठग आगे की परिकल्पना दिमाग में लिए अपनी जगह को चल दिया. सेठानी ने सपने बुनने आरम्भ कर दिए, तरह तरह की ‘प्लानिंग ’ करने लगी. दुसरे दिन सेठ मंडी चला गया. दिन भर में सेठानी ने ‘पैकिंग ’ कर डाली और रात ढले अपने महबूब के साथ अनजानी मंजिल को चल पड़ी.

उस समय टैक्सी बस का चलन तो था नहीं, घोडा गाड़ी बैल गाड़ी को लेजाना खतरे का काम था. इसलिए दोनों ने पद यात्रा का ही सहारा लिया. भारी सामान ठग ने अपने हाथों में ले लिया था, और नाम मात्र का समान उसने अपनी जानू को उठाने दिया था. 'रियली ही वाज सो केयरिंग' .
सेठानी बहुत ही मुदित हो रही थी. चलते चलते भोर का उजास हुआ, वे काफी दूर निकल आये थे और नदी किनारे खड़े थे. बस उस पार जाना था. नदी कोई खास गहरी नहीं थी, बस पैदल ही कमर तक डूब कर पार किया जा सकता था. ठग बोला, “जानू ! नदी का बहाव तेज है, तुम, मैं और असबाब सभी को ‘सेफली ’ उस पार जाना है….ऐसा करतें हैं पहले मैं सामान को उस पार ले जाता हूँ अपने सिर पर रख कर. सामान को वहां किसी जगह सुरक्षित छुपा कर, मैं लौट आऊंगा और फिर तुमको भी अपने मज़बूत कन्धों पर बिठा कर उस पर ले जाऊंगा. तुम को जरा सा भी कष्ट देना मुझे नागवार गुजरता है….आखिर तुम मेरी जान हो.” ठग की बाते ‘अप्परेंटली’ ‘लोजिकल ’ थी और जब ऐसे प्यार का भूत सर पर सवार होता है तो हर बात कुछ ऐसी ही लगती है. सेठानी भाव विभोर हो गई. सारा सामान नौजवान को सौंप दिया.यहाँ तक की भीग जाने के डर से अपने बदन पर पहने कीमती पैरहन तक को भी. बहुत ही ‘वार्म फेयरवेल ’ के आयोजन के बाद, प्रेमी सब कुछ लेकर उस पार चला गया, कभी नहीं लौटने के लिए.

इधर हमारी नायिका, प्रकृति की गोद में बहुत ही रोमांटिक हो प्रेमी की प्रतीक्षा कर रही थी. प्रातः की सुखद मीठी ठंडी हवा उसकी देह को छूकर उसको और स्वपनिल बना रही थी. कल्पना में तरहा तरहा की बातें ला कर उसका मन मयूर नाच रहा था.. लम्बा समय भी, खुशनुमा खयालों में खोयी सेठानी को महसूस नहीं हुआ था।
इतने में वहां एक गीदडी गयी. उसके मुंह में एक मांस का टुकड़ा था. तभी उसको नदी के किनारे एक मछली दिखाई दी. गीदडी मांस का टुकड़ा वहीँ छोड़ मछली को पकड़ने के लिए नदी की तरफ दौड़ गई. इसी बीच एक गिद्ध आसमान से नीचे आया और मांस का टुकड़ा अपनी चौंच में उठा कर उड़ गया. इधर मछली भी गीदडी को देख कर नदी में दूर जाकर उसकी पहुच से परे हो गई. गीदडी दोनों तरफ से खाली हो गई. मांस का टुकड़ा भी गिद्ध राज को भेंट हुआ और मछली भी जल में औझल हो गई. निर्वसन सेठानी सारा नज़ारा देख रही थी….उसका मन तो कल्पना में खोकर सातवें आसमान पर था......मूड भी लाइट था. सेठानी ठहाका मार कर हँसने लगी और लगी कहने, “मूर्ख गीदडी , तेरे हाथ से मछली भी गई और मांस भी, अब क्या सूनी आँखों से नील-आकाश को ताक रही है ?”

गीदड़ी ने भी प्रत्युतर देने में देर नहीं लगायी, 'फ्रस्ट्रेटेड' जो थी. गीदड़ी ने कहा, “तुम भी तो मेरी तरह हो, तुम्हारे पास भी ना तुम्हारा धन रहा, ना ही प्रेमी और ना ही पति. तेरा भी तो यही हाल है..”

आगे क्या हुआ होगा, उसका उल्लेख यहाँ करना उचित नहीं होगा.


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