Friday, November 12, 2010

समझ मुल्ला नसीरुद्दीन की......

# # #
मुल्ला नसीरुद्दीन एक गाँव के मदरसे में उस्ताद लगे हुए थे. गर्मी के दिन थे, पानी की प्यास और दिनों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही लगती थी और मुल्ला को तो बेहद, क्योंकि हमेशा कुछ ना कुछ उधेड़बुन में लगे रहते, आम खाने की बनिस्बत पेड़ गिनने में मशगूल रहते या अपने पूर्वाग्रहों और दिमागी उड़ानों का चश्मा लगा कर आसपास की घटनाओं को देखने में लगे रहते.

एक दिन एक शागिर्द से कहा, "ले जाओ यह सुराही और कुवें से पानी भर लाओ."

शागिर्द ने ज्यों ही सुराही उठाई और छलंगी क़दमों से आगे बढ़ने को हुआ, मुल्ला साहिब ने उसे अपने पास बुलाया, उसके कान खींचे और टपक से तमाचा जड़ दिया. शागिर्द अश्क बहाते हुए, जार जार रोता सुराही लिए चल दिया.

एक गाँव वाला यह सब होते देख रहा था. उसने मुल्ला से कहा,"इस बच्चे ने ना कोई खता की, ना ही कसूर किया, भाई यह तो हद्द हो गई, तुमने उसको चांटे भी मारे, कान भी खींचे और सुराही लेकर पानी लाने भी भेज दिया.क्या जान लोगे बच्चे की."

मुल्ला बोले,"मैं तुम से ज्यादा समझता हूँ उसको. तुम बीच में ना पडो. सुराही फोड़ लाये तो फिर मारने से क्या फायदा. पहिले ही उसके होंश ठिकाने लगा दिए. अब होश के साथ जायेगा कुंवे पर... सुराही को संभाल कर...और सुराही की हिफाज़त में भी कोताही नहीं करेगा क्योंकि मैने उसके कान खींच दिए हैं. जब सुराही फोड़ लाये तो मारने में क्या माकूल बात, फिर तो फ़िज़ूल है सब कुछ."

मुल्ला के अकाट्य तर्क के सम्मुख कोई क्या कह सकता था.

No comments:

Post a Comment