Wednesday, May 11, 2011

मानचित्र..

मानचित्र..

मैने कुछ दिन पहले यहीं अभिव्यक्ति पर यह कविता पोस्ट की थी...

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जब तक थी
प्रकाश की
अंतिम किरण
जोहता रहा था
बाट मैं
कब हो जाये
प्रकट
तेरी आँखों में
बन्द
रहस्यमय मानचित्र
जो कर सकते थे
प्रशस्त
मार्ग मेरा,
किन्तु
जब अँधेरे की
हथेलियों से
ढांप लिया था
तुम ने
चेहरा अपना,
मेरे लिए था
अवशिष्ट केवल
जोड़ जोड़ कर
बनाना एक
तस्वीर ज़िन्दगी की
चुन कर के
वे टुकड़े
जो बिखरे हुए थे
यत्र तत्र
मेरे प्रांगण में..


उसकी मेल......

पुरानी मेल्स खंगाल रहा था...देखा उसमें उसकी यह मेल थी :

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नहीं होती
अंतिम
कोई भी
किरण
प्रकाश की
कभी,
होता है
बस भ्रम मात्र
उसके
अंतिम होने का...

मान लेते हैं
हम
जब भी
अंतिम सत्य
क्षणिक
अंधकार को,
ढक लेता है
चन्द्र भी
सूर्य को
और
घट जाता है
ग्रहण
कुछ
समय के लिए ..

क्यूँ जोड़ने
लग गए हो
होकर अधीर
प्रांगण में
बिखरे टुकड़ों को
संभव नहीं है
होना पूर्ण
जिनसे
चित्र
ज़िन्दगी का...

देखो ना
मेरी आँखों में
झिलमिला रहा है
प्रकाश
साथ होने का
अपने ..
कर सकते हैं
हम प्रशस्त
मार्ग अपना
सहज स्वाभाविक
बिना किसी
मानचित्र के,
हो कर साथ
खुली राह पर ...

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