Monday, May 2, 2011

बिंदु बिंदु विचार : जो बिखर गया हवा में

* कई दिनों से अपना आत्ममंथन कर रहा था. कहते हैं ना गलती होना स्वाभाविक है लेकिन उसे दोहराना बेवकूफी या कमजोरी. मैने पाया मैं भी बेवक़ूफ़ हूँ या कमज़ोर क्योंकि बहुत स़ी गलतियाँ मैने दोहरायी है, और दोहरा भी रहा हूँ.

* एक गलती है दूसरे जब ज्यादा पूछ-गच्छ करने लगे, राय या मार्गदर्शन लेने लगे, उस दौरान परिस्थितिजन्य भावुकता, लोक व्यवहार अथवा चालाकी से अति-अपनत्व का एहसास देने लगें तो मैं उन्हें अपना तो समझता ही हूँ, स्वयं को भी उनका बहुत बड़ा हितैषी,गार्जियन और अभिन्न अंग मानने लगता हूँ. मुझे लगने लगता है, मेरे साथ उनका रिश्ता ताजिंदगी यूँ ही रहेगा...और ईमानदारी से कुछ ऐसा कह गुजरता हूँ, जो ऊपर से तो अच्छा लगा दिखाते हैं लोग किन्तु मन में गाँठ बाँध लेते हैं--बच्चू बहुत समझता है अपने को आने दो मौका बताएँगे तुम को...या सामने हाँ में हाँ मिलायेंगे किन्तु करेंगे ठीक उसके विपरीत जो कि आपसी सहमति द्वारा उनके अपने हित में तय हुआ था. और फिर आता है 'विसियस सर्कल' अस्तित्व में...और संबंधों में दरार और खाई तैयार होने लगती है.

* दरअसल मेरे व्यक्तित्व का दब दबा ही कुछ ऐसा होता है कि लोगों का मेरे सामने 'हाँ जी' 'हाँ जी' निकलता है. बातें भी मेरी इतनी तर्कसंगत और साधार होती है कि सामने वाले को सहमत होने के अलावा कोई भी चारा नहीं. लेकिन अपनी मान्यताएं अपने सोच अपनी कमजोरियां, अपने हित, अपनी आदतें तो अपनी होती है ना जी ...क्यों करे वो सब जो जिसके लिए मेरे साथ सहमति ज़ाहिर हुई हो...अजी यह सहमति तो कभी कभी पीछा छुडाने का सबब होती है. लोग कहते हैं, मियांजी को सलाम के लिए क्यों नाराज़ किया जाय.

* मैं गहराई तक गया, तो मुझे लगा कि यह सब मेरे शब्दों का साइड इफेक्ट है, मैं शब्द बड़े साफ़ और चुभने वाले बोलता हूँ बिना लाग लपेट के, वो जैन मुनि है ना जो चिल्ला चिल्ला कर, उछल उछल कर टीवी चेनल पर बोलने वाले, बस उनकी ही तरह कडवे बोल-कडवे प्रवचन बोलता रहता हूँ जी। उनकी चुभन पहले घाव बनती है॥फिर नासूर...और जरा कान इधर लाईये--स्स स्स स्स ! कभी कभी तो केंसर हो जाती है जी.

* इसीलिये तो मुल्ला और गुप्ताजी कहा करते हैं, मासटर मानते हैं तुम झूठ नहीं बोलते, सच ही कहा करते हो, इरादे भी तुम्हारे हमेशा नेक होते हैं...मगर अमां यार दुनिया तेरी तरह सरल और सहज नहीं, ज़ुबान पर लगाम दिया करो. नये नये मौलवी की तरह पुती ताक़त लगा कर तक़रीर करने लगते हो...यह अच्छी बात नहीं.

* शब्दों के चुनाव, डायेलोग डिलीवरी, फोलो अप (बांस बाज़ी), बोडी लैंग्वेज आदि का बड़ा खयाल रखना होता है। भावुक प्रेमी नहीं बन कर सयाना बन जाना तन-मन-धन के लिए अत्युत्तम होगा, आजकल बस यही सोच चलते हैं.

# बात उस ज़मानेकी है जब ग्रूमिंग स्कूल्स नहीं हुआ करते थे, डेल कार्नेगी-शिव खेरा-दीपक चोपड़ा-स्नेह देसाई, मिल्ट जैसे लोगों/संस्थाओं के प्रायोजित कार्यक्रम व्यवहार कुशलता जैसे विषयों पर नहीं हुआ करते थे. ये सब काम हमारे ऋषि-मुनि साधु-सन्यासी ही कर दिया करते थे. रहने को वे जंगल में कुटिया बना कर रहते थे लेकिन हरफनमौला होते थे. ह़र समस्या का समाधान निकाल ही लेते थे.

# एक दफा मेरे जैसा इंसान (समझिये मैं ही), मेरी जैसी ही समस्या से ग्रसित हो कर एक महात्मा जी के आश्रम में पहुँच गया. महात्माजी को सारा हाल-ए-दिल सुनाया, अपनी दास्तान-ऐ-गम सुनाई...मुनिजी ने आँखें बन्द की और सोचा. (मुनि लोग आँखें बन्द कर सोचते थे)

# एक चेलवे से कहा गुरु ने, अरे इस मासटर को एक झोला दो..

# हुकुम की तामील हुई, मुझे एक झोला पकड़ा दिया गया. गुरूजी बोले-मासटर इस में ये जो छोटी छोटी पंखें पड़ी है ना पंछियों की उनको भरो. (ये गुरु लोग अजीब होते हैं, कुछ ऐसा करने को कहेंगे जिसका तअल्लुक मूल समस्या से हैं या नहीं, खोपड़ी में नहीं आएगा.)

# खैर मैने भी हुकुम की तामील की. झोले को नन्ही नन्ही सुकोमल हल्की हल्की पंखों से भर डाला.

# मैने कहा, "अब और क्या करूँ, गुरुदेव"

# गुरूजी बोले, "मासटर जा बाहर खुले में जा, और इस झोले को खाली कर आ." मैने सोचा साधु बाबा चालाक है मुझ से श्रमदान करके अपनी कुटिया साफ़ करवाना चाहते हैं.

# खैर मैं बाहर गया। खुला मैदान था॥जंगल का...हवा बह रही थी जोरों से..मैने पंखों को उड़ेला और साथ साथ ही हवा के झोंके उन्हें उड़ा ले गए सोचा मैने क्या 'नोबल वे' है 'गार्बेज डिस्पोजल' का. खैर श्रृद्धा भक्ति ठी और मेरे सतानेवालों के द्वारा दी गयी 'इनडाईरेक्ट ट्रेनिंग' भी, मैने भी तय कर लिया आज वही करूँगा जो गुरुदेव हुकुम देंगे.

# वापस गुरुदेव की इजलास में हाज़िर हुआ. पूछा-'हे गुरु, अब क्या ?' गुरुदेव मुस्कुराये..बोले-मासटर जरा बाहर जाओ और वापस इस झोले में पंखों को भर के ले आओ. मैने सोचा गुरु देव का माथा सटक गया लगता है, खुद ही फिंकवाये और खुद ही कहते हैं वापस लाओ.

# मैने कहा वो तो मैं बाहिर फेंक आया, अब कहाँ मिलेंगे वापस. हुकुम हुआ-बाहर जा कर देखो शायद मिल जाये.

# अब गुरु का हुकुम, गया साहब बाहर..मगर एक भी पंख नहीं..किसे समेटूं.

# खाली झोला हाथ में लिए मैं फिर से गुरूजी के सामने खड़ा था.

# गुरु बोले, "क्या हुआ मासटर ? मैने कहा, "गुरु देव जो बिखर गए हवा में उनको समेटना सहेजना मुश्किल है."

# गुरुदेव 'एज युजुअल' फिर मुस्कुराये..लगे कहने, "मासटर ये जो शब्द होते हैं ना, वे भी इन पंखों की तरह होते हैं, एक दफा झोले से निकल कर हवा में बिखर गए तो फिर वापस नहीं होते, फिर इन्हें नहीं सहेजा जा सकता, फिर इन्हें नहीं समेटा जा सकता, फिर इन्हें नहीं लौटाया जा सकता."

# मेरे भेजे में बात आ गयी थी कि हित सोचता हूँ तो मन में रखूं, साधिकार कडवे बोल ना बोलूं...जो एक दफा चुभने वाला कह दिया उसे मेरा प्रेम, मेरी सद्भावना, मेरा हितेषी होना, मेरा सच्चा होना कुछ भी तो नहीं केयर कर सकता . ....और इसीलिए तो तकलीफ पा रहा हूँ.

# मेरी आँख खुल गयी थी..मैं नींद से जाग चुका था..मेरा सपना मुझे बहुत कुछ कह गया था.

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