Tuesday, February 28, 2012

अधबुझी चिंगारी ....

एक आम इंसान और समाज के बीच घटित क्रम को दिखाया गया है, बस मरने के बाद ही अधबुझी या कहें कि सुलगती चिंगारी को नहीं कुचलता समाज.....इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि हम सजग हों और हो सकें आज़ाद रुढियों और मतान्धता से अपने चिंतन मनन के द्वारा. हमारे वैयक्तिक आत्मिक उत्थान के लिए क्या क्या संभावनाएं है, कहीं हम यथास्थिति को बनाये रखने के चक्कर में संभावनाओं को तो नहीं गँवा रहे हैं...क्यों न हम अपनी चेतना को सबल बनायें और देख सकें कि वर्जनाएं क्या है मर्यादाएं क्या. समाज तो मृत शरीर को नवाजता है..क्योंकि वह उसकी मान्यताओं को चेलेंज नहीं करता.

अधबुझी चिंगारी
# # # # #
लग जाते हैं
रूढ़ियों और
मतान्धता के
मज़बूत ताले
चिंतन मनन के
दरवाज़ों पर,
हो जाता है
वध
संभावनाओं का
बनाये रखने
यथास्थिति,
कर दी जाती है
विवश
निर्बल चेतना,
स्वीकारने हेतु
वर्जनाओं को
मर्यादाएं !

लेते हैं जन्म
और
चले जाते हैं
अज्ञात को
बन कर
व्यथित आत्मा
तज कर
पार्थिव देह...

फूंक दिया जाता है
सुला कर
चन्दन चिता पर
सींच कर
घृत कर्पूर,
मध्य
अनबूझे मन्त्रों के
गगनभेदी
उच्चारण के...

रह जाती है शेष
एक अधबुझी
चिंगारी
जिसे छोड़ देते हैं
बिना कुचले
मरघट से लौटते
बतियाते लोग...

प्यासी इन्द्रियाँ...

# # #
होती है याचक
प्यासी इन्द्रियाँ
अपनी सी
प्यासी इन्द्रियों के द्वार
करते हुए गुहार
भिक्षा की,
पहना कर बाना
प्रेम का ,
सौहार्द का,
सहानुभूति का,
उदारमना होने का,
मान लिया जाता है
मात्र स्खलन को
क्षण तृप्ति का,
किन्तु नहीं हो पाता
वस्तुतः विमुक्त
यह मलिन मन
मृग तृष्णा से,
बदलते हैं
फिर से मुखौटे
और
पात्र भी,
खोजे जाते हैं
नये तर्क और युक्तियाँ,
हो जाता है
पुनरारम्भ
नाटक के
एक और अंक का,
और
पर्दा गिरने पर
बिखर जाते हैं
फिर से
अनमेल पंचभूत...

Friday, February 24, 2012

परम एकत्व ....

परम एकत्व
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महा शिवरात्रि के पवन दिवस पर शिव-पार्वती के आख्यान को स्मरण करने से बहुत सुकून मिलता है. बहुत कुछ आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक ज्ञान का रिविजन कर पाते हैं हम. शिव और शक्ति....पुरुष और प्रकृति के सम्मिलन के बिना वृतुल पूर्ण नहीं हो पाता....इस मिलन के क्रम में बहुत कुछ है जो साधना से जुड़ा हुआ है...पार्वती की निष्ठा और समर्पण, उसकी तपस्या में प्रकृति से नजदीकता का दृष्टान्त, शिव द्वारा छद्म वेश में पार्वती की प्रतिबद्धता की परीक्षा लेने का गज़ब उपक्रम, देवी का सटीक प्रत्युत्तर, शिव का द्रवित होकर देवी के प्रति अपने प्रेम और आस्था का इज़हार..और आत्मा और परमात्मा के एकत्व के अभियान का इंगित...यही सब कहने का प्रयास है यह रचना...जो स्वांत सुखाय घटित हुई है...
ॐ नमः शिवाय.

परम एकत्व (भाग -१ )
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हुई तपस्या रत गौरी, सौदेश्य पाने प्रियवर को,
शिव नाम गुंजारित मन में, तरसे भोले शंकर को...

वर्ष प्रथम अवधि में फल मात्र हुए थे भोजन
द्वितीय वर्षारंभ में हुए पर्ण क्षुधा प्रायोजन..

छूटे क्रमशः वृक्ष पत्र भी, हुई पार्वती अपर्णा,
स्वयं के खातिर स्वयं बनी थी माँ कैसी कृपणा..

अंततौगत्वा शक्ति स्त्रोत थे चन्द्रकिरण नभनीर,
प्रकृति ही पाल रही थी, जगधात्री का कँवल शरीर...

पर्वत पुत्री नहीं थी भिन्न स्वरुप किसी विटप से,
पाना था पुरुष प्रकृति को, समर्पण और सुतप से...

समग्र प्रकृति स्वरुप हुई थी तपस्विनी माँ जगदम्बे,
शिव ह्रदयराज्य साम्राज्ञी, अध्यवसायी माँ श्री अम्बे...

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परम एकत्व (भाग-२)

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शिव आये छद्म रूप धरे, परखे देवी की निष्ठा को
सादर समुचित पूजे देवी, विप्र की योग्य प्रतिष्ठा को.

पूछा था बहुरूपी शिव ने ,क्या है उसका इंगित सलक्ष्य
पाना है प्रियतम भोले को इस दिशी में है मेरा सुकृत्य.

कुशल अभिनेता अन्तर्यामी सटीक रूप त्रिलोकेश्वर है
हतोत्साह करने देवी को ,आशुतोष लगे दिखाने तेवर है.

कंगन शोभित हाथ तुम्हारे कैसे कर पशुपति के हैं,
लिपटे सर्प नाग जहां पर मानो निखिल धरती के हैं.

कैसा दिखेगा विवाह वेश जो मंडित है हंस चित्रों से,
होंगे रूद्र गज चर्म धरे जो भीगा रुधिर के कतरों से.

न केवल स्वरूप कुरूप उसका वंश परिचय भी है अज्ञात,
धन विहीन उस नग्न पुरुष से होगा क्योंकर तेरा साथ.

चन्दन लेप सुरभित उरोज जब स्पर्श करे शिव सीने से
राख भस्म से भरा हुआ, तर बतर है स्वेद पसीने से .

सुने ज्यों कटु विप्रवचन ,हुई थी गौरी कुपित अपरिमित
अवर अधर काटा किन्तु ,करने को अपना क्रोध सीमित.

नयन कोर रक्तिम देवी के भृकुटियाँ थी कुछ तनी तनी,
अभाव नहीं किंचित आदर में रुचिर रही वह बनी बनी.

नितान्त अपरिचित आप शैलेश से तभी तो ऐसा भाष रहे,
वृहत अभिप्राय से हो अनभिज्ञ ये शब्द कटु प्रकाश रहे .

महत्ती आत्माएं भिन्न सदा जनसामान्य के परिमापों से
हुई कटु आलोचना यदा-कदा कुछ भ्रमित वृथा प्रलापों से.

हवन पूजन करते हैं सब ,धन धान्य विपुल पा जाने को,
धर्मानुष्ठान सविधि किया करते विपदाएं दूर भगाने को .

किन्तु तमसोपति स्वश्वः अघोर,त्रिलोकी का रखवाला है,
विजय कर चुका वान्छायें जो ,फक्कड़ फकीर मतवाला है.

संग्रह्शील नहीं किंचित सर्वस्वामित्व का वो उदगम है,
है मरघट का बाशिंदा वह,सृष्टि पर उसका परचम है.

है जो दृष्टव्य भयंकर वो वास्तव में स्वयं अभयंकर है,
सुकोमल भावुक विनम्र अति कहलाता वह शम्भु शंकर है.

मणि माणक से आलोकित अथवा हो नागों को धरा हुआ,
रेशम का पेहरन पहने हो या गज चर्म को हो पहरा हुआ.

मुंडमाल गले में धारण या शीश पे शशि सुसज्जित हो,
कैसे संभव शिव खुद ब्रहमांड , कुछ शब्दों में परिभाषित हो ?

शमशान भस्म छूकर शिव को स्वयमेव पवित्र हो जाती है,
जीवित सृष्टि चर अचर को वह शुचिता परम दे पाती है.

तांडव जब नटराज रचाते हैं ,सुरगण भी दौड़े आते हैं,
जो कुछ भी गिरता शिव देह से, उसे लेप ललाट लगते हैं.

बूढ़े नन्दी पर हो आरूढ़ शिव अचलेश्वर आते जाते है
गजसवार सुरेन्द्र तत्क्षण उतर प्रभु चरणन शीश नवाते हैं.

क्षमा करें हे विप्र मुझे आप निस्सन्देह अति अज्ञानी है,
हाँ बात तःथ्य की मात्र एक, मैंने बस आपसे जानी है.

सत्य कथन यह है विप्र , शिव वंश का उद्गम है अज्ञात ,
किन्तु आदि सृष्टा ब्रह्मा के भी वे ही तो हैं स्वयं तात

तर्क आपके परम पूज्य ,च्युत नहीं मुझे कर पायेंगे,
मैं हूँ उनके ही प्रेम में क्यों, यह आप समझ नहीं पायेंगे.

ह्रदय मेरा केवल समझे वो प्रेम अनुभूति क्या होती है,
लक्ष्य जिसका हो सुसपष्ट अति ,पर्वाह उसको क्या होती है.

सद् आत्माओं को निन्दित करना पाप कर्म कहलाता है,
श्रवण इसका करते रहना जघन्य अधर्म कहलाता है.

नम नयन झुका कर गौरी ने सुविप्र को सादर नमन किया
करते हुए स्मरण मनीष का ,हो विवेक मय कुछ मनन किया.

वीरभद्र अक्रूर तत्क्षण निज मूल स्वरुप आ जाते हैं,
कर पकड़ प्रगाढ़ देवी सती का, स्वप्रेम अथाह जताते हैं.

तरल हृदय नम नयन लिए शिव बोले -सुन हे तपस्विनी
मैं हूँ अद्य अनुदास तेरा तू हो गयी मेरी सहज स्वामिनी

तुमने समग्र समर्पण से मोहे प्रसन्न परास्त किया है प्रिये,
मेधा तेरी ने इस भूतेश्वर को अति आशवस्त किया है प्रिये.

प्रकति-पुरुष का यह सम्मिलन सम्पूर्ण मुझे कर पायेगा,
बता मुझे निर्मल नीर भी क्या पृथक स्वरस से रह पायेगा ?.

प्रतिबद्ध यह अर्पण गौरी का प्रतिमान लैंगिक सह-अस्तित्व का
आत्मा है आद्या हम सब की, है अभियान परम एकत्व का.

Saturday, February 18, 2012

इति-अथ : अनेकान्त सीरिज

(सुपठन,स्वाध्याय,सत्संग एवम स्वचिन्तन के 'प्राप्य' को शेयर करने का सुविचार..जहाँ से मिला उनके प्रति सादर अहोभाव)
# # # # #
इति
किसी के अथ की
होती अन्य का
अथ भी
सतत काल सापेक्ष
होता गत भी
अनागत भी...

एक ही शब्द
अर्थ पृथक
निर्भर भाव पर
प्रयोग पर,
एक ही प्रश्न
उत्तर भिन्न
है घटित
निर्वचन
संयोग पर...

आस्तिक्य
नास्तिक्य
युगल स्वरुप,
सहज एवं निर्द्वंद,
पक्षी नीड़
नहीं है कारा
देखो कहाँ है
परों पर प्रतिबन्ध...

Saturday, February 11, 2012

अब फना मुझे हो जाना है

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बचना किसको है ऐ मौला
अब फना मुझे हो जाना है
अपनी हस्ती को मिटा सजन
मोहे तुझ में ही मिल जाना है.....

तू मुझ में है मैं तुझ में हूँ
किस बात में तुझ से मैं कम हूँ ,
मैले तन मन को उजला कर
मोहे तुम से मिलने जाना है....

इर्ष्या विद्वेष को जीत सकूँ
भय लोभ से खुद को रीत सकूँ,
मोह और प्रेम का भेद जान
मोहे तुम से प्रीत लगाना है.....

बिरहा में मैं हूँ बिलख रहा,
बस राह तिहारी निरख रहा,
मिल जा आकर के तू जानां
मैं राधा हूँ तू कान्हा है.....

अपनी हस्ती को मिटा सजन
मोहे तुझ में ही मिल जाना है.

('उठ जाग मुसाफिर भोर भई ' की तर्ज़ पर गुनगुना के देखिएगा :))

Thursday, February 9, 2012

माँ सरस्वती मन्त्र...(भाव-प्रस्तुति)

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माँ सरस्वती !

धवलवर्णा परम सुंदरी तू माँ

ज्यों कुंद पुष्प सम श्वेत चंद्रा,

श्वेत वस्त्र धारिणी माँ

तुषार सम गलमाल शुभ्रा,

आसीन श्वेत पद्म आसन पर,

वीणा विराजित ले भुज सहारा,

सुर पूजित मातेश्वरी !

करते नमन तुम्हारा,

तिरोहित हो तन्द्रा , जननी !

ह़र दो अज्ञान तिमिर हमारा...

(कुंद पुष्प=चमेली/जूही के फूल)

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(या कुन्देन्दु तुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता

या वीणावरदण्डमण्डित करा या श्वेत्पद्मासना ।

या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता

सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ॥)

आ गए फिर जहां हुआ करते थे पहले.....

# # # # #

भ्रम में हम यारों ,जिया करते थे पहले
आ गए फिर ,जहां हुआ करते थे पहले.

तृष्णा उभरी थी छलिया यौवन बन के
मतिभ्रम हमको कुछ ऐसे हुए थे पहले

अश्रु आ जाते हैं सोच के ही इसको
आख़िर क्यों तुम से हम ऐसे जुड़े थे पहले.

सज के रह गए फूलदानों में हम तो
अंतस के खिले पुष्प हुआ करते थे पहले.

सिर है कांधों पे या नश्वर माटी कोई
ज्ञानी हम पुकारे जाया करते थे पहले.

गिरे हैं गगन से और अटके खजूर में
चने के झाड़ पे जो चढ़े हुए थे पहले

एकाकीपन ही अब मेरा सहोदर है
सम्बन्ध ऐसे प्यारे कहाँ हुए थे पहले.

खुली है नींद और चेतना लौट आई
बिखरे हैं स्वप्न सगरे जो देखे थे पहले.

वसंत-विरह

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जड़ें वही
तने वही
द्रुम वही
हो रहे हैं
नव पल्लव
गिरा कर
पुरातन पत्तों को ,,,

हो रहा है
महोत्सव सुरंगा
वन-उपवन के
आँगन में ,,,

रंगीला बसंत
उकेर रहा है
सुन्दर बेल बूटे
हिना से
कुदरत की
हथेली पर ,,,

दिलकश महक
भर कर खुद में
देखो ना
सुखद पवन
कर रही है नर्तन ,,,

छेड़ी हैं टेर
मधुर मिश्री सी
गायक
पखेरुओं ने ,,,

नाच रही है
पीपल की
ताम्बई कोंपलें
संग
सूरज की
सुनहरी किरणों के ,,,

हरियल सुए
उड़ रहे हैं लेकर
सुर्ख चोंचों में
माणक से दाने
अनार के ,,,

चंचल हरिण
भर रहे हैं
कुलांचे
दबाये मुंह में
कच्ची दूब को ,,,

प्यासा प्रेमी
भ्रमर
उनींदी कली के
कानों में
फुसफुसा रहा है
बोल प्रेम के ,,,,

चांदी सी
चांदनी रात में
किसी अलगोजे ने
छेड़ी है
विरह तान,
सुन कर जिसे
बिलख रही है धरती
सिसक रहा है आसमान ,,,

(राजस्थानी लोकगीतों से प्रेरित )

मुलाक़ात होती रही.......

# # # #
ह़र करवट पे उनसे मुलाक़ात होती रही
बन्द होठों से दिल की ह़र बात होती रही.

वो इस तरफ थे या उस जानिब क्या जाने
ह़र छुअन में हासिल इनायात होती रही.

मिरी जबींसाई थी के जबीं को चूमना उनका,
ईमा ईमा में बरपा इल्तिफात होती रही.

गुलाबी चादर थी या के गुलाब ख्वाजा के ,
घुल के दो से यक,दोनों बसीरात होती रही.

ना भीगे थे जिस्म हुई थी बस नम आँखें
नवाजने रूह को ये कैसी बरसात होती रही.

(जबींसाई =नम्रता से माथा टेकना,
जबीं =ललाट,
ईमा= संकेत,
बरपा=उपस्थित
इनायात=मेहरबानियाँ,
इल्तिफात= कृपा,
बसीरात=अंतर-दृष्टियाँ,प्रतिभाएं,
नवाजना =सम्मानित करना.)

Wednesday, February 1, 2012

कुछ गिले फिर से...

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सरकशी के हैं सिलसिले फिर से
हो गए उनको कुछ गिले फिर से.

हम को मरहम भी जब नहीं हासिल
ज़ख्म क्यूँ आज हैं खुले फिर से.

दिन वही गुरबतों के लौट आये
लुट गए दिल के काफिले फिर से.

किस्से चाहत के बस अधूरे हैं
चन्द उभरे हैं फासले फिर से.

बेमुरव्वत हवा चली ऐसी
के कवँल कम से हैं खिले फिर से.

पर्दा महफ़िल का अब गिरा दो ज़रा
सांप आस्तीं में हैं पले फिर से.

कहदे काशिद उन्हें तू यूँ जा कर
घर किसी के हैं अब जले फिर से.

देके झूठी कसम रवायत की
कैसे यारब वो हैं टले फिर से.

सरकशी-टेढ़ापन

बादल जब मन हो तब बरसे (आशु रचना )

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आतुर मन काहे को तरसे,
बादल जब मन हो तब बरसे,
एक खेत सूखा रह जाये
दूजा हरा भरा हो सरसे...

उत्तर नहीं बहुत प्रश्नों का
क्यों दूर जा रहा तू घर से,
जी ले पूरा जीवन हंस कर
रहे व्यथित क्यों वृथा डर से...

कर कर संग्रह उलझ रहा तू,
क्यों ना लुटा रहा तू कर से,
अपनों से तू तोड़ रहा है,
नेह लगा रहा क्यों पर से.