Tuesday, February 28, 2012

प्यासी इन्द्रियाँ...

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होती है याचक
प्यासी इन्द्रियाँ
अपनी सी
प्यासी इन्द्रियों के द्वार
करते हुए गुहार
भिक्षा की,
पहना कर बाना
प्रेम का ,
सौहार्द का,
सहानुभूति का,
उदारमना होने का,
मान लिया जाता है
मात्र स्खलन को
क्षण तृप्ति का,
किन्तु नहीं हो पाता
वस्तुतः विमुक्त
यह मलिन मन
मृग तृष्णा से,
बदलते हैं
फिर से मुखौटे
और
पात्र भी,
खोजे जाते हैं
नये तर्क और युक्तियाँ,
हो जाता है
पुनरारम्भ
नाटक के
एक और अंक का,
और
पर्दा गिरने पर
बिखर जाते हैं
फिर से
अनमेल पंचभूत...

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