Friday, February 24, 2012

परम एकत्व ....

परम एकत्व
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महा शिवरात्रि के पवन दिवस पर शिव-पार्वती के आख्यान को स्मरण करने से बहुत सुकून मिलता है. बहुत कुछ आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक ज्ञान का रिविजन कर पाते हैं हम. शिव और शक्ति....पुरुष और प्रकृति के सम्मिलन के बिना वृतुल पूर्ण नहीं हो पाता....इस मिलन के क्रम में बहुत कुछ है जो साधना से जुड़ा हुआ है...पार्वती की निष्ठा और समर्पण, उसकी तपस्या में प्रकृति से नजदीकता का दृष्टान्त, शिव द्वारा छद्म वेश में पार्वती की प्रतिबद्धता की परीक्षा लेने का गज़ब उपक्रम, देवी का सटीक प्रत्युत्तर, शिव का द्रवित होकर देवी के प्रति अपने प्रेम और आस्था का इज़हार..और आत्मा और परमात्मा के एकत्व के अभियान का इंगित...यही सब कहने का प्रयास है यह रचना...जो स्वांत सुखाय घटित हुई है...
ॐ नमः शिवाय.

परम एकत्व (भाग -१ )
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हुई तपस्या रत गौरी, सौदेश्य पाने प्रियवर को,
शिव नाम गुंजारित मन में, तरसे भोले शंकर को...

वर्ष प्रथम अवधि में फल मात्र हुए थे भोजन
द्वितीय वर्षारंभ में हुए पर्ण क्षुधा प्रायोजन..

छूटे क्रमशः वृक्ष पत्र भी, हुई पार्वती अपर्णा,
स्वयं के खातिर स्वयं बनी थी माँ कैसी कृपणा..

अंततौगत्वा शक्ति स्त्रोत थे चन्द्रकिरण नभनीर,
प्रकृति ही पाल रही थी, जगधात्री का कँवल शरीर...

पर्वत पुत्री नहीं थी भिन्न स्वरुप किसी विटप से,
पाना था पुरुष प्रकृति को, समर्पण और सुतप से...

समग्र प्रकृति स्वरुप हुई थी तपस्विनी माँ जगदम्बे,
शिव ह्रदयराज्य साम्राज्ञी, अध्यवसायी माँ श्री अम्बे...

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परम एकत्व (भाग-२)

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शिव आये छद्म रूप धरे, परखे देवी की निष्ठा को
सादर समुचित पूजे देवी, विप्र की योग्य प्रतिष्ठा को.

पूछा था बहुरूपी शिव ने ,क्या है उसका इंगित सलक्ष्य
पाना है प्रियतम भोले को इस दिशी में है मेरा सुकृत्य.

कुशल अभिनेता अन्तर्यामी सटीक रूप त्रिलोकेश्वर है
हतोत्साह करने देवी को ,आशुतोष लगे दिखाने तेवर है.

कंगन शोभित हाथ तुम्हारे कैसे कर पशुपति के हैं,
लिपटे सर्प नाग जहां पर मानो निखिल धरती के हैं.

कैसा दिखेगा विवाह वेश जो मंडित है हंस चित्रों से,
होंगे रूद्र गज चर्म धरे जो भीगा रुधिर के कतरों से.

न केवल स्वरूप कुरूप उसका वंश परिचय भी है अज्ञात,
धन विहीन उस नग्न पुरुष से होगा क्योंकर तेरा साथ.

चन्दन लेप सुरभित उरोज जब स्पर्श करे शिव सीने से
राख भस्म से भरा हुआ, तर बतर है स्वेद पसीने से .

सुने ज्यों कटु विप्रवचन ,हुई थी गौरी कुपित अपरिमित
अवर अधर काटा किन्तु ,करने को अपना क्रोध सीमित.

नयन कोर रक्तिम देवी के भृकुटियाँ थी कुछ तनी तनी,
अभाव नहीं किंचित आदर में रुचिर रही वह बनी बनी.

नितान्त अपरिचित आप शैलेश से तभी तो ऐसा भाष रहे,
वृहत अभिप्राय से हो अनभिज्ञ ये शब्द कटु प्रकाश रहे .

महत्ती आत्माएं भिन्न सदा जनसामान्य के परिमापों से
हुई कटु आलोचना यदा-कदा कुछ भ्रमित वृथा प्रलापों से.

हवन पूजन करते हैं सब ,धन धान्य विपुल पा जाने को,
धर्मानुष्ठान सविधि किया करते विपदाएं दूर भगाने को .

किन्तु तमसोपति स्वश्वः अघोर,त्रिलोकी का रखवाला है,
विजय कर चुका वान्छायें जो ,फक्कड़ फकीर मतवाला है.

संग्रह्शील नहीं किंचित सर्वस्वामित्व का वो उदगम है,
है मरघट का बाशिंदा वह,सृष्टि पर उसका परचम है.

है जो दृष्टव्य भयंकर वो वास्तव में स्वयं अभयंकर है,
सुकोमल भावुक विनम्र अति कहलाता वह शम्भु शंकर है.

मणि माणक से आलोकित अथवा हो नागों को धरा हुआ,
रेशम का पेहरन पहने हो या गज चर्म को हो पहरा हुआ.

मुंडमाल गले में धारण या शीश पे शशि सुसज्जित हो,
कैसे संभव शिव खुद ब्रहमांड , कुछ शब्दों में परिभाषित हो ?

शमशान भस्म छूकर शिव को स्वयमेव पवित्र हो जाती है,
जीवित सृष्टि चर अचर को वह शुचिता परम दे पाती है.

तांडव जब नटराज रचाते हैं ,सुरगण भी दौड़े आते हैं,
जो कुछ भी गिरता शिव देह से, उसे लेप ललाट लगते हैं.

बूढ़े नन्दी पर हो आरूढ़ शिव अचलेश्वर आते जाते है
गजसवार सुरेन्द्र तत्क्षण उतर प्रभु चरणन शीश नवाते हैं.

क्षमा करें हे विप्र मुझे आप निस्सन्देह अति अज्ञानी है,
हाँ बात तःथ्य की मात्र एक, मैंने बस आपसे जानी है.

सत्य कथन यह है विप्र , शिव वंश का उद्गम है अज्ञात ,
किन्तु आदि सृष्टा ब्रह्मा के भी वे ही तो हैं स्वयं तात

तर्क आपके परम पूज्य ,च्युत नहीं मुझे कर पायेंगे,
मैं हूँ उनके ही प्रेम में क्यों, यह आप समझ नहीं पायेंगे.

ह्रदय मेरा केवल समझे वो प्रेम अनुभूति क्या होती है,
लक्ष्य जिसका हो सुसपष्ट अति ,पर्वाह उसको क्या होती है.

सद् आत्माओं को निन्दित करना पाप कर्म कहलाता है,
श्रवण इसका करते रहना जघन्य अधर्म कहलाता है.

नम नयन झुका कर गौरी ने सुविप्र को सादर नमन किया
करते हुए स्मरण मनीष का ,हो विवेक मय कुछ मनन किया.

वीरभद्र अक्रूर तत्क्षण निज मूल स्वरुप आ जाते हैं,
कर पकड़ प्रगाढ़ देवी सती का, स्वप्रेम अथाह जताते हैं.

तरल हृदय नम नयन लिए शिव बोले -सुन हे तपस्विनी
मैं हूँ अद्य अनुदास तेरा तू हो गयी मेरी सहज स्वामिनी

तुमने समग्र समर्पण से मोहे प्रसन्न परास्त किया है प्रिये,
मेधा तेरी ने इस भूतेश्वर को अति आशवस्त किया है प्रिये.

प्रकति-पुरुष का यह सम्मिलन सम्पूर्ण मुझे कर पायेगा,
बता मुझे निर्मल नीर भी क्या पृथक स्वरस से रह पायेगा ?.

प्रतिबद्ध यह अर्पण गौरी का प्रतिमान लैंगिक सह-अस्तित्व का
आत्मा है आद्या हम सब की, है अभियान परम एकत्व का.

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