एक आम इंसान और समाज के बीच घटित क्रम को दिखाया गया है, बस मरने के बाद ही अधबुझी या कहें कि सुलगती चिंगारी को नहीं कुचलता समाज.....इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि हम सजग हों और हो सकें आज़ाद रुढियों और मतान्धता से अपने चिंतन मनन के द्वारा. हमारे वैयक्तिक आत्मिक उत्थान के लिए क्या क्या संभावनाएं है, कहीं हम यथास्थिति को बनाये रखने के चक्कर में संभावनाओं को तो नहीं गँवा रहे हैं...क्यों न हम अपनी चेतना को सबल बनायें और देख सकें कि वर्जनाएं क्या है मर्यादाएं क्या. समाज तो मृत शरीर को नवाजता है..क्योंकि वह उसकी मान्यताओं को चेलेंज नहीं करता.
अधबुझी चिंगारी
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लग जाते हैं
रूढ़ियों और
मतान्धता के
मज़बूत ताले
चिंतन मनन के
दरवाज़ों पर,
हो जाता है
वध
संभावनाओं का
बनाये रखने
यथास्थिति,
कर दी जाती है
विवश
निर्बल चेतना,
स्वीकारने हेतु
वर्जनाओं को
मर्यादाएं !
लेते हैं जन्म
और
चले जाते हैं
अज्ञात को
बन कर
व्यथित आत्मा
तज कर
पार्थिव देह...
फूंक दिया जाता है
सुला कर
चन्दन चिता पर
सींच कर
घृत कर्पूर,
मध्य
अनबूझे मन्त्रों के
गगनभेदी
उच्चारण के...
रह जाती है शेष
एक अधबुझी
चिंगारी
जिसे छोड़ देते हैं
बिना कुचले
मरघट से लौटते
बतियाते लोग...
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