Thursday, February 9, 2012

वसंत-विरह

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जड़ें वही
तने वही
द्रुम वही
हो रहे हैं
नव पल्लव
गिरा कर
पुरातन पत्तों को ,,,

हो रहा है
महोत्सव सुरंगा
वन-उपवन के
आँगन में ,,,

रंगीला बसंत
उकेर रहा है
सुन्दर बेल बूटे
हिना से
कुदरत की
हथेली पर ,,,

दिलकश महक
भर कर खुद में
देखो ना
सुखद पवन
कर रही है नर्तन ,,,

छेड़ी हैं टेर
मधुर मिश्री सी
गायक
पखेरुओं ने ,,,

नाच रही है
पीपल की
ताम्बई कोंपलें
संग
सूरज की
सुनहरी किरणों के ,,,

हरियल सुए
उड़ रहे हैं लेकर
सुर्ख चोंचों में
माणक से दाने
अनार के ,,,

चंचल हरिण
भर रहे हैं
कुलांचे
दबाये मुंह में
कच्ची दूब को ,,,

प्यासा प्रेमी
भ्रमर
उनींदी कली के
कानों में
फुसफुसा रहा है
बोल प्रेम के ,,,,

चांदी सी
चांदनी रात में
किसी अलगोजे ने
छेड़ी है
विरह तान,
सुन कर जिसे
बिलख रही है धरती
सिसक रहा है आसमान ,,,

(राजस्थानी लोकगीतों से प्रेरित )

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