#######
सरकशी के हैं सिलसिले फिर से
हो गए उनको कुछ गिले फिर से.
हम को मरहम भी जब नहीं हासिल
ज़ख्म क्यूँ आज हैं खुले फिर से.
दिन वही गुरबतों के लौट आये
लुट गए दिल के काफिले फिर से.
किस्से चाहत के बस अधूरे हैं
चन्द उभरे हैं फासले फिर से.
बेमुरव्वत हवा चली ऐसी
के कवँल कम से हैं खिले फिर से.
पर्दा महफ़िल का अब गिरा दो ज़रा
सांप आस्तीं में हैं पले फिर से.
कहदे काशिद उन्हें तू यूँ जा कर
घर किसी के हैं अब जले फिर से.
देके झूठी कसम रवायत की
कैसे यारब वो हैं टले फिर से.
सरकशी-टेढ़ापन
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment