एक दौर था. ऐसा नहीं था कि दीवानी और मैं एक छत शेयर करते थे, ऐसा भी नहीं था कि हम अपना ज़्यादातर वक़्त साथ गुजरते थे……….मिलना जुलना ‘लिमिटेड’ ही था……बस कुछ एहसास थे दरमियाँ, जो महसूस किये जाते थे…दोनों के द्वारा. मेरा जाना हुआ था बाहिर देश किसी के छोटे कोर्स के लिए……उस दौरान एक पत्र में उसने यह नज़्म 'कोट' की थी :
# # #जाते ही तुम्हारे
हो गयी वाष्पित
अंतर की
सारी विरलता
एक रेतीलापन
रह गया
नि:शेष
उठ गया विश्वास
चांदनी का
मुझ पर से
मुंडेर की सखी
चिड़ियाँ ने
छोड़ दिया है
बातचीत तक करना
मुझ से
फूल हैं कि
देख कर
दूर से ही
कर लेते हैं
पंखुड़ियों को बंध
अनसुनी सी
लौट आती है
सारी प्रार्थनाएं
नीली छतरी से
हवा है कि
दूर से ही
जाती है उड़…….
देखो
हो गयी हूँ
कितनी अकेली
जाते ही तुम्हारे....
**********************
मैं तो यहीं हूँ.......(बात विनेश की)
मेरे अंतर को छू गए थे उसके अल्फाज़ और उनमें लिपटी भावनाएं……भावुक मैं भी हो गया था ……लेकिन अनुभवों का अंतर अभिव्यक्तियों को प्रभावित कर रहा था.
उसका जीवन एक कोरे कागज़ के तुल्य था और यहाँ ना जाने कितनी इबारतें अलग अलग अंदाज़ में लिखी जा चुकी थी….हाँ उस जैसा कोई नहीं आया था मेरी जिंदगी में.
मैंने लिखा था:
उसका जीवन एक कोरे कागज़ के तुल्य था और यहाँ ना जाने कितनी इबारतें अलग अलग अंदाज़ में लिखी जा चुकी थी….हाँ उस जैसा कोई नहीं आया था मेरी जिंदगी में.
मैंने लिखा था:
मेरे ख्यालों में
हर लम्हे
एक तस्वीर है
वह तुम्हारी
सिर्फ तुम्हारी....
एहसास कि
तुम्हारा साथ
साथ है मेरे,
दे रहा है मुझे
ख़ुशी, सुकूं
और
तस्कीन……
होते हैं हम सब
अधूरे
छूकर कोई दिल को
जुड़ कर
एहसासों से
करता है
कराता है
महसूस
पूर्णता…..पूर्णता……पूर्णता....
बना दिया है तुमने
जुदाई को
हम-मायने
मायूसी के,
(क्योंकि)
शायरों, कवियों और
गुलूकारों ने कहा है
सेंकडों सालों से
कुछ ऐसा ही …
भर रखा है तुम ने
अपनी आँखों को
अपने दिल को,
अकेलेपन के
एहसासात से,
तभी तो
जुदा जुदा से
लगते हैं
तुम्हे हर वो साथी
जो चाह रहे हैं
इस वक़्त
देना साथ तुम्हारा,
मुझसे कहीं ज्यादा
मुझ से कहीं बेहतर……
देखो
वह परिंदा
गा रहा है
मीठे से नगमे
सिर्फ खातिर तुम्हारे ,
मुस्कुरा रहा है वह फूल
देख कर सिर्फ तुम को,
छू रही है जो हवा
तुझको,
छुआ है उसने
तुम से पहिले मुझ को...
मेरे स्वर भी है
तुम्हारी प्रार्थनाओं के
स्वरों में,
जो आ रही है लौट कर
तुम तक
जो इबादतें,
वे तुम्हारे नहीं
स्वर हैं मेरे,
जो हो रहे हैं धन्य
पहुँच कर
तुम में विराजित
इश्वरत्व तक....
हर शे में
तुम और मैं
मैं और तुम
संग संग बसे हैं
तू अकेली नहीं
मैं और मेरे एहसास हैं
संग तुम्हारे……
यदि 'तुम' 'मैं'
और
मैं तुम हो तो
ऐ दीवानी !
रहो ना साथ खुद के,
मैं तो यहीं हूँ
बस यहीं
समाया हुआ तुझ में...
No comments:
Post a Comment