एक दौर ऐसा आया जब अपने हर सृजन में वह मुझे शरीक करने लगी थी , मुझे सुनने लगी…..और मुझ से पा कर, उसे आत्मसात कर, अपनाकर अपने सृजन को निखारने लगी..साथ के स्पंदन उसे स्वयंस्फूर्त और ऊर्जामय करते थे …….मुझे और उसे दोनों को इस साथ से आनन्द मिल रहा था……अचानक उसे कुछ अजीब से एहसास हुए……और एक दिन उसकी यह कविता मैने एक पत्रिका में पढ़ी :
महत्वाकांक्षा.... (दीवानी उवाच)
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जानते हो तुममन है मेरा
पारदर्शी
शीशे की तरह
फिर क्यों
उछालते हो पत्थर
बार बार
मेरी ओर
चुनती हूँ मैं
आहत हाथों से
बिखरी किरचें
रात दिन…
सृजन
महत्वाकांक्षा है मेरी
और तुम्हें
शौक है
विध्वंस का…
कविता को पढ़ कर, उन दिनों के उसके व्यवहार को समझ कर मुझे लगा कि या तो यह अति-परिचय के दोष है, या उसकी 'so called individuality’ उछाल मार रही है…..उसे भ्रम हो रहा है खुद के खो जाने का…….मैं तो अब तक के जीवन में कई घाटों का पानी पी चुका था……कईयों की सीढ़ी बन गिराया जा चुका था……इसीलिए जीवन में एक तटस्थता स़ी आ गई थी…..साक्षी-भाव से घटनाओं को देखना और खुद में मस्त रहना मेरा स्वभाव बन गया था….. इस शांत सरोवर में दीवानी ने कंकर गिरा कर हलचल पैदा कर दी थी…. दीवानी से मैं दिल से प्रेम करने लग गया था….हाँ वह प्रेम पेड़ों के इर्द-गिर्द गाने वाला प्रेम नहीं था, ठंडी आहें भरने वाला प्रेम नहीं था, कसमों वादों वाला प्रेम नहीं था वगेरह वगेरह (आप समझ गए होंगे)……एक बहुत ही ‘बूढा बूढा सा प्रेम---चुप चुप सा’…….मैने सोचा मेरी बात उस तक पहुचाई जाय…पत्रिका के अगले अंक में मेरी यह कविता प्रकाशित हुई थी :
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विध्वंस....(बात विनेश की)
होकर प्रेममय
कर पाया दर्शन
तुम्हारे पवित्र
मन मंदिर का,
पारदर्शी है जो
ज़म गई है किन्तु
धूल जिस पर
अहम् की
मिथ्याभिमान की
अतृप्त आकाँक्षाओं की,
कह रही हो
जिन्हें तुम
अपनी
महत्वाकांक्षाएं ……
देख कर तड़प
नयनों में तुम्हारे
प्रेम और सत्य के लिए,
हो गया था
प्रवृत मैं
बुहारने
बरसों की जमी
उस धूल को ,
हो सके ताकि
दर्शन
तुम्हारे पारदर्शी
मन-मंदिर के,
सिर्फ मुझे ही नहीं
उन सबों को भी
जो उत्सुक हैं
झलक उसकी
पाने को
एवम
कर सको
तुम भी
दर्शन स्वयं के……
किन्तु नहीं समझा
तुमने
प्रयासों को मेरे,
प्रत्युत्तर
तुम्हारी चाहत का,
न जाने क्यों
माना तुमने उन्हें
एक आवाहन
तुम्हारी
सृजनशीलता के
विध्वंस का ....
हाँ ,मेरे प्रयास
मिलकर
तुम्हारे प्रयासों से
कर रहे थे विध्वंस
उन आवरणों का जो
आच्छादित हैं
तुम्हारे अंतर पर
वर्षों के
सामाजिक
अनुकूलन
और
अनुबंधन से,
नहीं हो पायेगा
असली सृजन
जब तक हैं
फैलाव उनका
तुम्हारी अस्मिता में
तुम्हारे अस्तित्व में…
मरहम
लगा रहा हूँ मैं
तुम्हारे आहत
तन-मन को;
प्रस्तुत हूँ
सृजन पथ पर
देने साथ तुम्हारा,
बस देखो तो ज़रा
हो कर मुक्त
अपने भ्रम,
स्वपीड़ा और
महत्वाकांक्षाओं के
पाखंड से.....
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