Wednesday, April 22, 2009

पौधें....

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मेरे भारत के
गुरुकुलों के
सुरम्य वातावरण में
सन्निकट प्रकृति के
वट और पीपल
वृक्षों के तले
परम विद्वान् ऋषि
बोते थे बीज ज्ञान के
उन नवयुवकों में
जो बिना भेद-भाव के
राजा से रंक तक
रहते थे साथ
लेकर दीक्षा
पाने शिक्षा
जीवन की...........

यही पौधें
बन कर वृक्ष
देते थे समाज को
नेतृत्व
ज्ञान में
विज्ञान में
संज्ञान में
ध्यान में
धारणा में
धर्म में
कर्म में
और था मेरा भारत
सोन चिरैया..........

आज
देकर कैपिटेशन फी
देकर अनुदान या रिश्वत
घुसते हैं
विद्यार्थी
कुकुरमुत्ते से उगे हुए
कालेजेस /इंस्टीट्यूशनस में
बनने को
डॉक्टर, इंजिनियर, एमबीए,
मीडिया एक्स्पर्ट, फैशन डिजाईनर
और ना जाने क्या क्या,
निकलते हैं बन कर
रोग-ग्रस्त पौधें
समाये खुद में
प्रतिस्पर्धा और गिरते मूल्यों के
कीटाणु, जीवाणु या विषाणु
करने को संक्रमित
इस प्रतिरोध क्षमता खोये
जर्जर समाज को..........

किसने दिया है
यह हक हमें कि
अपने भयों और लोभों से
होकर वशीभूत
चांदी के चन्द सिक्कों के एवज में
खरीदते हैं भविष्य
उन मासूमों का
जिन्हें बनाना चाहते हैं हम
जिम्मेदार शहरी
उस मुल्क का जो
सबसे बड़ी जम्हूरियत है
दुनिया की ;
जहाँ हुए हैं
गौतम,महावीर,दयानंद,
विवेकानंद, सुभाष और गाँधी ......

बदलेगी कैसे यह व्यवस्था ?
बदलेगा कौन यह अवस्था ?
करेगा कौन हमें भय-मुक्त ?
होंगे कैसे हम शक्तियुक्त ?
अनगिनत प्रश्न है ऐसे
हम आम आदमियों के,
खोजने हैं हमें उत्तर जिनके
बचाने इस देश को
उस दीमक से जो
कर रही है
खोखला
इसकी जड़ों को.......

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