Friday, April 22, 2011

विराम चिन्ह.....

# # #
विराम चिन्हों के
प्रयोग में
पाया था
कमज़ोर
खुद को,
और
बैठा था
व्याकरण की
कक्षा में
बन कर विद्यार्थी,
हो गयी थी
अनायास ही
वो
कक्षा जीवन की
मेरे लिए,
सोचने लगा था
मैं
हम तो हैं
बस
अल्प विराम (,)
अथवा
अर्ध विराम, (;)
क्यों करते हैं
दावा हम
एक भ्रमित सा
पूर्ण विराम (.)
होने का,
क्यों होते हैं
भयभीत
आशंका
या
सम्भावना से
कि
कुछ और भी
लिखा जाएगा
आगे
हम से,
नहीं हैं
हम
विस्मयादिबोधक (!)
क्योंकि
है नहीं
हम में
बालसुलभ
सरलता
सहजता
निश्छलता
और
निष्कपटता,
हो जाते हैं
क्यों हम
उद्धरण चिन्ह (" ")
कभी कभी..
बचने हेतु
अपनी बात को
कहने से /
ना झेलने के लिए
जोखिम
उसके
परिणामों की/
अभाव में
मूल सोचों के /
अपनाते हुए
स्वभाव-
नकारने का
अवसर
सुरक्षित रखने का
इत्यादि इत्यादि...,
पाते हैं हम
कभी कभी तो
स्वयं को
कोष्टक में [( )]
स्पष्ट
करने हेतु
दूसरों को,
ले आते हैं
हम
कभी कभी
हाशिये पर
औरों को
खुद को
साबित करने के
क्रम में,
और
अधिकांशत
बन जाते हैं
प्रश्न चिन्ह ( ?)
अपने ही पैदा किये
अनुतरित
सवालों के लिए
या
अपने ही बनाये
जवाबों के लिए..

Thursday, April 21, 2011

अहम् और तुलनाए ..(हिंदी रूपांतरण-मुदिताजी)

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रहता है जीवित
अहम्
तुलनाओं के कारण

अहम् है
एक कथा
कल्पित सी
रचा जाता है
जिसे
कलम से
तुलनाओं की..

होता है पोषण
अहम् का,
भोजन से
तुलनाओं के

जन्म लेती हैं
मनोग्रंथियाँ
हीनता
और
श्रेष्ठता की
करने पर
तुलनाएं
व्यर्थ सी

बेहतर मानव
संजोये होता
ग्रंथी हीनत्व की
निज अंतर के तल में

कमतर
होता वो भी
पाले रहता
ग्रंथि उत्कृष्टता की
स्व-अंतस में

झूठी हैं
तुलनाएं सभी,
हैं अर्थहीन
और
योग्यता-विहीन भी

छोड़ दो
करना
तुलनात्मक
अध्ययन अपना
रहो बस
'स्वयं'
हो कर...

ए मित्र !!
कैसे हो सकते हो
तुम
श्रेष्ठ
अथवा
हीन
हो
तुम
यदि
'तुम'
सिर्फ 'तुम !!!!

निर्लिप्त...

# # #
निर्लिप्त
चक्का
लपेट लेता है
राह को,
प्रारंभ को
समापन को
देते हुए
गति वाहन को...

Sunday, April 17, 2011

मौन...(हिंदी रूपांतरण मुदिताजी द्वारा)

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बिना कुछ बोले भी
हो सकते हैं
संलिप्त
हम शब्दों में,
और बोलते हुए भी
हो सकते हैं
स्थित
हम मौन में

घटित होता है
जब मौन
नहीं होता वह
अशांत
बोलने से कभी ..
महत्वहीन है
वह मौन
जो हो जाता है
अस्तव्यस्त
प्रक्रिया में
बोलने की ..
नहीं है भय
शाश्वत मौन को
शब्दों का कभी

मौन नहीं है
मात्र
अनुपस्थिति
शब्दों की ...
यह तो है
जीवंत उपस्थिति
'स्व'
'बोध'
और
'प्रेम' की

मौन
बोलता है
तुमसे
गाता है गीत
भर के बाँहों में
तुम्हें
उंडेल देता है
अपनी प्रीत

है ऊर्जा असीम
यह विस्मयकारी
घटित होती है
दिव्यता
आतंरिक और बाहरी
नहीं है निर्वात कोई
बस है अनुभूति
सम्पूर्णता की
मौन के कारण
उपस्थिति
जीवन्तता
और आनंद की

आओ मित्र !!
सीख लें हम
सुनना
मौन की
आवाज़ को
नहीं मात्र
कर्णेन्द्रियों से
अपितु
अपने पूरे शरीर से,
आत्मा से
और
अपने सम्पूर्ण तत्व से
हो कर कृतज्ञ
अस्तित्व के प्रति...

Saturday, April 16, 2011

बिंदु बिंदु विचार : लेणा एक ना देणा दोय

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हमारा कोई भला करे तो हमें उसका यथाशक्ति प्रतिदान करना चाहिए. किन्तु कभी कभी ऐसा भी देखा गया है कि कुछ मिलने पर लालच बढ़ जाता है, भलाई करने के वक़्त जो मनोभाव थे उनकी जगह स्वार्थपरता और असुरक्षा के भाव हावी होने लगते है और जाने अनजाने मौके का फायदा उठाने का ज़ज्बा उभर आता है, रोज़मर्रा कि ज़िन्दगी में हम सब ऐसे तुज़ुर्बों से दो चार होते रहते हैं, जब भी मिलते हैं ऐसी बातों पर टाइम पास करने के लिए चर्चा विचर्चा भी करते रहते हैं...फिर ऐसे तुज़ुर्बों से दो चार होते रहते हैं. आज की कहानी ऐसे ही एक तुज़ुर्बे को बयान करेगी.

# कौवे और कछुए में खूब छनती थी. दोनों गहरे दोस्त थे.

# एक दिन कौवा एक चिड़ीमार के जाल में फंस गया.

# अपने दोस्त को फंसे देख कर कछुआ चिड़ीमार से बोला, "चिड़ीमार ! मेरे दोस्त को छोड़ दो, बदले में मैं तुम्हे एक मोती दूंगा."

# चिड़ीमार बोला, "पहले तुम मुझे मोती दो, तभी तुम्हारे इस कांव कांव करने वाले काले दोस्त को छोडूंगा.

# कछुए ने झील में डुबकी लगायी और एक सुन्दर सा मोती ला कर चिड़ीमार की खिदमत में पेश कर दिया.

# कीमती मोती देख कर चिड़ीमार के दिल में लालच आ गया. वह बोला, "तुम मुझे इसकी जोड़ी का मोती ला कर दो, तब मैं तुम्हारे दोस्त को आज़ाद करूँगा."

# कछुए ने बहुत तमीज से कहा, "चिड़ीमार साहेब! मेरा भरोसा करो. मैं आपको दूसरा मोती ज़रूर ला दूंगा, मगर पहले मेरे दोस्त को छोड़ो."

# चिड़ीमार ने कौवे को छोड़ दिया. कछुए ने भी डील के मुताबिक एक मोती और लाकर चिड़ीमार को दे दिया.

# कहते हैं ना, लालच का कोई भी आखिर नहीं होता। चिड़ीमार के संग भी यही हुआ. वह बोला, "यह पहले वाले मोती की जोड़ी का नहीं है, थोड़ा छोटा है, मुझे दूसरा मोती लाकर दो."

# कछुए को चिड़ीमार के लालच का अंदाज़ा हो गया था. वह बोला, " मुझे पहले वाला मोती दो, तभी तो मैं उसकी जोड़ी का मोती ला सकूँगा."

# चिड़ीमार ने मोती दे दिया. कछुआ झील में घुसा और गायब हो गया. चिड़ीमार इंतज़ार में बैठा था की कछुआ अब आये, अब आये. मगर कछुए के आने के कोई आसार ही नज़र नहीं आ रहे थे.

# चिड़ीमार ने कछुए को आवाज़ लगायी, "धोखेबाज़ कहाँ छुप गया, वादाखिलाफी कर रहा है. आ बाहिर, तुझे सबक सिखाता हूँ...दे मेरा मोती."

# कछुए ने झील के भीतर से ही जवाब दिया, "खुदा करे सो होय, लेणा एक ना देणा दोय."

# पेड़ पर बैठा कौवा बोला, "सुना नहीं ? मेरे दोस्त के कहने का मतलब है की तू एक मोती लेता नहीं और मैं दो मोती देता नहीं."

# चिड़ीमार अपना सा मुंह ले कर वहां से खिसियाता हुआ खिसक लिया.

Thursday, April 14, 2011

बिंदु बिंदु विचार : टेम्परेरी सम्मान

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  • एक दौर ऐसा था मेरे जीवन में, मैं प्रशंसा, यश, स्तुति के लिए मरता था. इन्हें पाने के लिए मैं तरह तरह के नाटक करता था. अपनी मेधा का इस्तेमाल मैं शब्दाडम्बरों द्वारा मेरे समर्थन में वातावरण बनाने में करता था, चाहे व्यक्तिगत स्तर पर हो अथवा सार्वजनिक स्तर पर. महफ़िलों में तालियाँ, वाह वाह, लोगों का झूठा सच्चा स्नेह-सम्मान मुझ पे मानो बरसता था, और मैं और अधिक पाने के लिए सतत प्रयास करता रहता था. इस क्रम में मैं सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत जीवन में धनी होता गया, किन्तु नैतिक और आध्यात्मिक पहलुओं में गिरता गया....यह बात और है कि एक बिंदु पर आकर यह पतन रुक गया, क्योंकि मैने इन सब में लिप्त ना होकर स्वयं को पृथक करना सीख लिया था. अनुभव ज़िन्दगी के और भी बहुत हैं, मगर एक समय एक बात ही शेयर करना यथेष्ट और श्रेय होता है,
  • आज एक लोककथा पढ़ी, जिसे बचपन में सुनी थी मैने और मैने भी खूब सुनाई थी. आईये हम सब मिलकर उसे मिलकर देखें.
  • एक गीदड़ एक बार भटकते भटकते जंगल से शहर की ओर आ निकला. वहां उसे ना जाने किस भाषा में किसी स्टाम्प पेपर पर छपा कोई दस्तावेज मिल गया, गीदड़ ने उसे उठा लिया. हालांकि वह उसका आलिफ भी नहीं पढ़ पाया था,उसने सोचा क्यों ना इस का लाभ उठाया जाय.
  • जंगल में जा कर उसने सब गीदड़ों को इकठ्ठा किया, इस धूर्त गीदड़ ने भाषण दिया, "भाईयों में शहर गया था, वहां मैं राज दरबार में गया और मैने आप सब के दुखों की गाथा गा कर महाराजा साहब को सुनाई. कहने लगा, "महाराज और उनके मंत्रिगण मेरे इस प्रेजेंटेशन से बहुत प्रभावित हुए थे."
  • उसने बताया, "महाराजा साहब ने महत्ती कृपा कर के हम सब लोगों के लिए शहर में जमीन मुहैय्या करने का आदेश दिया और यह पट्टा (राज्यादेश) जारी कर दिया. भाईयो ! दो महीने बाद की तारिख हम लोगों के लिए शहर में प्रवेश करने के लिए मुक़र्रर हुई है. हम शान से आज के दो माह बाद शहर में दाखिल होंगे. अब दो महीनो हमें जश्न मना चाहिए."
  • धूर्त गीदड़ को गीदड़ों ने अपना सरदार चुन लिया.
  • गीदड़ों ने खूब जश्न मनाना शरू कर दिया. जगह जगह धूर्त गीदड़ का अभिनन्दन होता. उसे दावतें दी जाती, अच्छा खासा खाना पीना कराया जाता एवं अन्य भोग विलास उसकी खिदमत में पेश किये जाते.
  • गीदड़ की तो बन आई थी. मगर एक चिन्ता उसे सताती-- क्या होगा दो माह के बाद ?
  • खैर वह नीयत तारिख भी करीब आ गयी. गीदड़ बोला, "भाईयों, रात के बारह बजे तारीख बदलती है..हमें अर्धरात्रि को नगर-प्रवेश करना है. सब तैयार रहना."
  • उसने सोचा था कि नगर-परकोटे के एक दरवाजे से घुसा कर दूसरे दरवाजे से काफिले को निकाल लाऊंगा यह बहाना बना कर कि महाराज ने फ़रमाया था आज मुहूर्त कर लो, कुछ और समय तुम लोगों की कालोनी बनने में लगेगा..फिर से चले आना.
  • शुभ मुहूर्त की पूर्व संध्या बहुत बड़ा उत्सव हुआ. नाच गान, मद्यपान, खान पान.....सब कुछ. सरदार याने धूर्त गीदड़ को गैंदे, गुलाब, जवाकुसुम, चन्दन, चमेली आदि की तरह तरह की मालाएं पहनाई गयी...तिलक लगाया गया..पावों में मोटे मोटे सोने के कड़े पहनाये गए...सुन्दर दुपट्टों दुशालों से उसे लाद दिया गया था. समझिये बस उसका मुंह ही थोड़ा-मोड़ा दीखता था बाकी सब कुछ कवर हो गया था.
  • रात्रि के ठीक बारह बजे...आगे आगे सरदार पट्टा लिए हुए और पीछे गीदड़ों का जत्था...गाते झूमते नगर प्रवेश किया गया.
  • रात्रि का सन्नाटा. चारों तरफ सुनसान...पिन ड्रॉप साईलेंस...बस तारों की रोशनी...थमी थमी फिजायें.
  • शहर के कुत्तों को लग गयी खुशबू गीदड़ों की. लगे जोर जोर से भूँकने...बाक़ी तो सब गीदड़ हलके थे..उलटे पाँव भाग लिए. बस सरदार अटक गया अपने हारों और दुशालों में...कुत्तों ने उसे चीर डाला..फाड़ डाला..नोच नोच कर खा भी डाला.
  • धूर्त गीदड़ का कंकाल सुबह देखा गया...पास में उस दस्तावेज के पन्ने बिखरे पड़े थे...जो कुछ भी हो सकता था मगर गीदड़ों के बसने के लिए महाराजा साहब द्वारा जारी किया गया पट्टा नहीं.

Tuesday, April 12, 2011

हमारी आज की यह पहचान....

# # # # # # #
कर देगी नितान्त अनजान
हमारी आज की यह पहचान...

मेघ चातक की यह कहानी
देखो हो गयी कितनी पुरानी
कथाएं कुमुदनी और चन्दा की
कपोल कल्पनाएँ अति सुहानी

विश्वास अदृश्य अनोखा भान
ना कोई प्राप्य नहीं प्रतिदान...

चूमा तट को लहर चंचल ने
लौट चली वो क्यों एक पल में
बुलावा नहीं है तट के स्वर में
लज्जा भरी है क्या लहर में ?

है नहीं कोई संशय का सोपान
बस करना जिज्ञासा का संधान...

युग बीते जब मिलन अपना होगा
परिचय एक क्षणिक सपना होगा
टूटेगा सच आभास समय का
गत-आगत कालों के विनिमय का

तिरोहित समस्त लोक प्रतिमान
मौनमय मुखरित सा आह्वान...

बिंदु बिंदु विचार : घमंडी कबूतर

* आज यह कहानी उस बच्ची की फरमाईश पर कह रहा हूँ जो आज बड़ी हो गयी है, बहुत बड़ी. दो दो मास्टर्स की डिग्री- अर्थ शास्त्र व प्रबंध विज्ञान में, और दुनिया की सबसे बड़ी क्वालिफिकेशन अकाउंटिंग प्रोफेशन में. आज एक जिम्मेदार पद पर आसीन है मिस नजमा खान, बहुत कुछ सीख जान रही है, मगर इस कहानी को सुनने को बेताब है. इसे उसने ना जाने कितनी बार मुझ से सुना है तथा मुझे भी और औरों को भी सुनाया है.

* बहुत छोटी थी नजमा, मेरे भाई भाभी के पास जर्सी सिटी के मरीन बुल्वार्ड इलाके में रहती थी. भाई भाभी के संघर्ष के दिन थे. एक छोटा सा अपार्टमेन्ट था हडसन नदी के पास. मैं जब भी अमेरिका जाता उनके साथ ही रहता.

* बरामदे में खड़े होने से विशाल नदी दिखती थी. मुझे उसको देख कर हमेशा अपनी गंगा मैय्या याद आ जाती थी.

* भैय्या भाभी काम पर चले जाते थे,मैं जल्द ही लौट आता यदि बाहर जाता या घर में ही रहता. नजमा स्कूल से आ जाती और मेरे साथ खेलती, मुझे परेशान करती, मुझ से बातें करती, 'गढ़ों कोटों की' (बड़ी बड़ी बातों के लिए राजस्थानी मुहावरा). ना जाने कितनी लोक कथाएं मैं उसे सुनाता, उसके सटीक और उलूल-जूलूल सवालों के जवाब देता. मगर हम लोगों में खूब छनती थी।

# बरामदे में एक दफा कबूतर के एक जोड़े ने कुछ तिनके डाल कर घोंसला बनाया था. कबूतरी को प्रसव होना था. टावर के नियमों के अनुसार किसी भी पक्षी या पशु को बिना शर्तों के पालन के अपार्टमेन्ट में रखने की इज़ाज़त नहीं थी. उस पर कबूतर, जो गन्दगी फैलाये. मगर नजमा की जिद्द की उसे वहीँ कायम रखा जाये. भैय्या भाभी कानून कायदों के पाबन्द. मगर इस जिद्दी लड़की ने, मुझे मजबूर कर दिया कि मैं उसका साथ दूँ. कबूतर के घोंसले को हम लोग कार्ड बोर्ड के एक कार्टून में छुपा देते, भैय्या भाभी के चले जाने पर कार्टून हट जाता...नजमा और हम घंटों कबूतरों और उसी क्रम में निकली बेतरतीब बातें किया करते. शाम को उनके आने से पहिले, फिर कार्टून लगा दिया जाता. कार्टून का एक हिस्सा खुला रखा जाता था ताकि कबूतर जोड़े का फ्री आना जाना हो सके.

# इसी दौरान कबूतर की यह कहानी भी तुतलाती नजमा को सुनाई जाती, बार बार. ना जाने क्या चार्म था इस कहानी में, वह बड़ी होती गयी और जब भी मैं जाता मुझ से वह कहानी सुनती.

# मुझे यह राजस्थानी लोक कथा मेरी नानीसा ने बचपन में सुनाई थी.

# यह बात उस वक़्त की है जब कबूतर झड़ियों में अंडे दिया करते थे. आये दिन लूंकड़ी (लौमड़ी) उन अण्डों को चट कर जाती थी.

# इस मुश्किल को लेकर कबूतर बहोत फिक्रमंद थे। उन्होंने चिड़ियों के मुखिया से इस का हाल पूछा. मुखिया बोला, "आपको पेड़ पर का आला (घोंसला) डालना होगा."

# कबूतर ने घोंसला बनाया मगर ठीक से नहीं बना. उसने चिड़ियाँ को मदद के लिए बुलाया. चिड़ियाँ कबूतर को सुन्दर सा घोंसला बनाना सीखा ही रही थी कि कबूतर ने घमंड से कहा, " अरे इसमें क्या बड़ी बात है, ऐसा बनाना तो हमें भी आता है. हमें आपके सुझाव की ज़रुरत नहीं, हम खुद ही बना लेंगे." कबूतर को इतनी हीन भावना थी कि उसे किसी का भी कुछ कहना गवारा नहीं होता था. उसे जब भी चिड़ियाँ कोई सही सलाह देती, उसे लगता वह उसे नीचा दिखा रही है.
# कबूतर के बर्ताव को देख कर चिड़ियाँ ने कन्नी काट ली.

# कबूतर ने फिर से कोशिश की घोंसला बनाने की, मगर नहीं बना पाया. उसने फिर चिड़ियाँ को बुलाया, चिड़ियाँ उसे आहिस्ता आहिस्ता तिनका लगाना बता ही रही थी कि कबूतर फिर उछल पड़ा, " अरे यह तो मैं भी जानता हूँ. इसमें कौन बड़ी बात है. तुम तो ख़ामोखवाह मुझ पर रोब गांठ रही हो. मैं बेवकूफ नहीं"

# चिड़ियाँ बोली, "कबूतर ! जो कुछ नहीं जानता उसे बहम खाता है कि वह सब कुछ जानता है. ऐसे लोगों को कुछ भी नहीं सिखाया जा सकता." यह कह कर चिड़ियाँ फुर्र से उड़ गयी.

# तब से आज तक कबूतर ऐसे ही बेतरतीब घोंसले बनाता आ रहा है.

# अहंकारग्रस्त बुद्धि कभी भी इल्म हासिल नहीं कर सकती चाहे कबूतर हो या इंसान. चाहे नजमा हो या मैं...और नजमा कहती मैं नहीं हूँ कबूतर.

# नजमा ने बहुत कुछ जाना सीखा, सब से जाना सीखा और आज सीखा रही है.

# आज उसे यह कहानी याद आ गई. उसके लिए मैने फिर से कह दी. आप किसी के काम आये तो आप भी सार निकल लीजियेगा, थोथी हो तो उड़ा दीजियेगा.

बिंदु बिंदु विचार : महापर्व नवरात्र

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* महादेवी की नवाधिशक्ति जब महाशक्ति का स्वरुप धारण करती हैं उस काल को नवरात्र कहा जाता है.

* नवरात्र भारतीय संस्कृति का उदात्त पक्ष है, जिसे अपराजेय भक्ति, जीवन शक्ति एवं अप्रितम अनुरक्ति हेतु श्रद्धा भाव से निष्ठापूर्वक मनाने की परंपरा है.

* नवरात्र पर्व समृद्धि, आत्मोद्धार एवं संवर्धन का द्वार है, जो अनीति, अन्याय का विरोध करने की दृष्टि प्रदान करता है. तभी तो अम्बे के अवतरण की अवधारणा का अन्याय के उन्मूलन से सम्बन्ध है.

* तंत्रागमों में अष्ट शक्तियों का उल्लेख मिलता है. ब्राह्मी (श्रृष्टिक्रिया संचालिका), माहेश्वरी (लय शक्ति संचालिका), कौमारी (आसुरी वृति की संहारक, दैवीय गुणों की रक्षिका), वैष्णवी( श्रृष्टि पालिका), वाराही ( काल शक्ति), नर सिंही (ब्रहम विद्या, रूप, ज्ञान प्रकाशिका), ऐन्द्री ( विद्युत् शक्ति, इन्द्रियों की अधिष्ठाता, जीव कर्म प्रकाशिका), चामुंडा (इन्हें ही दुर्गा कहते हैं जिन्होंने पृवृति रूपी चंड, निवृति रुपी मुण्ड का संहार किया था. यह प्रलय शक्ति है.).

* चामुंडा ने जिन असुरों दैत्यों का संहार किया, वे सभी मानव मन की प्रवृतियों के द्योतक हैं. मोह (महिषासुर), काम ( रक्त बीज), क्रोध (धूम्र लोचन), लोभ( सुग्रीव) , मद (चंड), मत्सर्य (मुण्ड), राग (मधु), द्वेष (कैटभ),ममता (निशुम्भ), अहंकार(शुम्भ). मनुष्य इन्ही सब विकारों से ग्रसित रहता है. अतः नवरात्र के प्रथम आठ तिथियों की उपासना आराधना का आशय यही है कि मनुष्य इन दुर्गुणों के संहार की अभिलाषा करे तथा अंतिम अर्थात नवमी को प्रकृतिपुरुष शिवशक्ति के एकाकार रूप की आराधना कर अपने चिर लक्ष्य की और अग्रसर हो.

बिंदु बिंदु विचार : टांग खीच कर नीचे लाना

आज जो कहानी शेयर कर रहा हूँ, वह मैं अपनी मेनेजमेंट क्लासेज/डेवलपमेंट प्रोग्राम्स में अलग अलग सन्दर्भों में अक्सर सुनाया करता हूँ. नजमा से तो यह कहानी बहुत दफा शेयर हुई है. भारतीय परिवेश में नौकरशाही, ऑफिसों की राजनीति, घर-परिवार एवं समाज में लोगों की प्रवृति को लेकर उसकी जिज्ञासाओं के समाधान के बीच इसका जिक्र आ ही जाता था.

* भारत से 'सी फ़ूड' का निर्यात होता है, कई देशों में. पकेजिंग बहुत अच्छे से करनी होती है. ताकि समुद्री जहाज से 'माल' ठीक से अपनी जगह पहुँच जाये.

* लागत काम करने के उपाय व्यापार में सब जगह सोचे जाते हैं. बिजनेस स्कूल से निकले एक प्रोग्रेसिव फ्रेशर ने एक तरकीब अपनाई.

* उसने तय किया कि क्रेब्स/लोबस्त्र्स (केंकड़ों) को खुले टोकरों में बाहिर मुल्क भेजा जाये. इस से उन्हें ताज़ी हवा मिलती रहेगी, वे तरोताजा रहेंगे, और इसलिए तुलनातमक दृष्टि से अधिक स्वादिष्ट और क्रिस्प होंगे.

* चेयरमेन साहब बुजुर्ग थे, उन्हें पूछ लिया -"तुम पैकेजिंग कोस्ट बचाना चाहते हो, इस सुझाव के कई एक लाभ भी गिना रहे हो. सब ठीक है उपर उपरी, किन्तु भाई ऐसा कैसे मुमकिन हो सकेगा, ये केंकड़े एक एक कर निकल बाहर होंगे, नौजवान मेरी इस शंका का समाधान करो ?"

* नौजवान ने कहा, "सर ये केंकड़े हैं, जब भी इनमें से कोई ऊपर उठेगा, नीचे वाले उसकी टांग खींच कर फिर से नीचे ले आयेंगे, सर! केंकड़े और ऊपर से हमारे देश के, आप बिलकुल फ़िक्र ना करें."

* अनुभवी चेयरमेन साहब कन्विंस हो गए थे.

बिंदु बिंदु विचार : दुःख में सुख..

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# हमारी सोचें हमारे जीने का अन्दाज़ बनाती है. तरह तरह के विचारों को जमा कर के हम जीते हैं. कुछ लोग सकारात्मक होते हैं, ह़र बात में कुछ ना कुछ अच्छा खोज लेते हैं. कुछ लोग उदारमना होते हैं, दूसरों को उनकी फेस वेल्यु पर लेते हैं, और तदानुरूप व्यवहार करते हैं. कुछ लोग बहुत ही संकीर्ण बुद्धि के मालिक होते हैं, दूसरों को बेवकूफ समझते हैं और खुद को होशियार. कुछ लोगों को बहम रहता है कि लफ्फाजी से दूसरों को मेनेज कर सकते हैं. जुबान पलटना, नाटक-नौटंकी करना इनकी फ़ित्रत होती है. ऐसों के अहम् को ठेस जल्दी लगती है, और वे अपने सद इज़हार किये ज़ज्बात और सोचों को भूल कर, बर्ताव में घिनौनापन ले आते हैं. दुनिया पर काबिज़ होने कि बातें करनेवाले ये इंसान बस उलझ कर अपने ही गुलाम बन कर रह जाते हैं.

# तुलसीदास जी ने कहा है, "तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग, सब से हिल मिल चालिए, नदी नाव संजोग."

# संस्कृत की एक उक्ति भी है, "मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना, कुंडे कुंडे जलं चः." अर्थात विभिन्न मस्तिष्कों में विभिन्न प्रकार की मति (बुद्धि) वास करती है जैसे कि विभिन्न विभिन्न सरोवरों में अलग अलग तरह का पानी.

# एक था चूहा, एक थी गिलहरी.

# चूहा चतुर चालाक, स्मार्ट और गिलहरी विचारवान किन्तु सीधी-साधी.

# एक दफा इत्तेफाक से चूहे और गिलहरी का आमना सामना हो गया.

# चूहे ने कहा, " मुझे मूषकराज कहते हैं लोग. मेरे ये पैने दांत है ना लोहे के पिंजर की पत्तियों को काट सकते हैं. मैं किसी भी चीज को काट कर छेद कर सकता हूँ, कुतर सकता हूँ, चाहे कीमती पोशाक हो, या अन्न से भरे बोरे."
# गिलहरी को अच्छा नहीं लगा चूहे का यह दंभ और उसकी करतूतें. बोली, "भाई, इस तरह तो तुम दूसरों का नुक्सान करते हो फायदा नहीं. तुम्हे प्रभु ने जब इतने सुन्दर नुकीले पैने दांत दिये हैं तो इनका सदुपयोग करो, नक्काशी क्यों नहीं करते ?"

# "बहुत बढ़ चढ़ कर बोलती हो तुम गिलहरी", चूहा बोला, "थोड़ा अपने बारे में भी तो बताओ।" चूहा गिलहरी की साफ़ सुथरी बात से खिसिया गया था.

# गिलहरी ने कहा, "भाई मुझ में तुम स़ी कोई खासियत नहीं है. बस जो है ये तीन धारियां है मेरे जिस्म पर जिसको तुम देख रहे हो, बस इन्ही के बताये पैगाम पर मैं जीती हूँ."

# चूहा बोला, "खुल कर बोलो."

# गिलहरी कह रही थी, " दिन भर में मुझे जो दाना पानी मिल जाता है, उनका कचरा साफ़ करके मैं तसल्ली से अपना पेट भर लेती हूँ."

# चूहा कह रहा था, " बाकी तो सब ठीक है. पर तुम्हारी इन तीन धारियों का पैगाम क्या है, जिसका जिक्र तुम ने अभी अभी किया था."

# गिलहरी बोली, "वह तुम्हे मालूम ही नहीं, आसपास दो काली धरिया हैं उनके बीच में एक सफ़ेद है. इसका मतलब है, कि दुःख और कठिनाईयों की परतों के बीच से ही असली सुख झांकता है. दो काली अँधेरी रातों के बीच में ही सुनहला दिन रहता है. हमें बस सद्भाव से अपने सहज कर्म करते रहना चाहिए."

# घमंडी चूहा यह सुनकर शर्मिन्दा हो कर अपने बिल को चल दिया था.

Tuesday, April 5, 2011

हेतु...

# # #
समा जाता
सागर के
गहन
विस्तार में,
बन कर
भगीरथी,
स्राव
और
स्खलन
हिमालय का,
होता है
हेतु
प्रेम,
उदारता
और
उपासना,
ना कि
स्वार्थ,
संकीर्णता
और
वासना...