Tuesday, April 12, 2011

बिंदु बिंदु विचार : घमंडी कबूतर

* आज यह कहानी उस बच्ची की फरमाईश पर कह रहा हूँ जो आज बड़ी हो गयी है, बहुत बड़ी. दो दो मास्टर्स की डिग्री- अर्थ शास्त्र व प्रबंध विज्ञान में, और दुनिया की सबसे बड़ी क्वालिफिकेशन अकाउंटिंग प्रोफेशन में. आज एक जिम्मेदार पद पर आसीन है मिस नजमा खान, बहुत कुछ सीख जान रही है, मगर इस कहानी को सुनने को बेताब है. इसे उसने ना जाने कितनी बार मुझ से सुना है तथा मुझे भी और औरों को भी सुनाया है.

* बहुत छोटी थी नजमा, मेरे भाई भाभी के पास जर्सी सिटी के मरीन बुल्वार्ड इलाके में रहती थी. भाई भाभी के संघर्ष के दिन थे. एक छोटा सा अपार्टमेन्ट था हडसन नदी के पास. मैं जब भी अमेरिका जाता उनके साथ ही रहता.

* बरामदे में खड़े होने से विशाल नदी दिखती थी. मुझे उसको देख कर हमेशा अपनी गंगा मैय्या याद आ जाती थी.

* भैय्या भाभी काम पर चले जाते थे,मैं जल्द ही लौट आता यदि बाहर जाता या घर में ही रहता. नजमा स्कूल से आ जाती और मेरे साथ खेलती, मुझे परेशान करती, मुझ से बातें करती, 'गढ़ों कोटों की' (बड़ी बड़ी बातों के लिए राजस्थानी मुहावरा). ना जाने कितनी लोक कथाएं मैं उसे सुनाता, उसके सटीक और उलूल-जूलूल सवालों के जवाब देता. मगर हम लोगों में खूब छनती थी।

# बरामदे में एक दफा कबूतर के एक जोड़े ने कुछ तिनके डाल कर घोंसला बनाया था. कबूतरी को प्रसव होना था. टावर के नियमों के अनुसार किसी भी पक्षी या पशु को बिना शर्तों के पालन के अपार्टमेन्ट में रखने की इज़ाज़त नहीं थी. उस पर कबूतर, जो गन्दगी फैलाये. मगर नजमा की जिद्द की उसे वहीँ कायम रखा जाये. भैय्या भाभी कानून कायदों के पाबन्द. मगर इस जिद्दी लड़की ने, मुझे मजबूर कर दिया कि मैं उसका साथ दूँ. कबूतर के घोंसले को हम लोग कार्ड बोर्ड के एक कार्टून में छुपा देते, भैय्या भाभी के चले जाने पर कार्टून हट जाता...नजमा और हम घंटों कबूतरों और उसी क्रम में निकली बेतरतीब बातें किया करते. शाम को उनके आने से पहिले, फिर कार्टून लगा दिया जाता. कार्टून का एक हिस्सा खुला रखा जाता था ताकि कबूतर जोड़े का फ्री आना जाना हो सके.

# इसी दौरान कबूतर की यह कहानी भी तुतलाती नजमा को सुनाई जाती, बार बार. ना जाने क्या चार्म था इस कहानी में, वह बड़ी होती गयी और जब भी मैं जाता मुझ से वह कहानी सुनती.

# मुझे यह राजस्थानी लोक कथा मेरी नानीसा ने बचपन में सुनाई थी.

# यह बात उस वक़्त की है जब कबूतर झड़ियों में अंडे दिया करते थे. आये दिन लूंकड़ी (लौमड़ी) उन अण्डों को चट कर जाती थी.

# इस मुश्किल को लेकर कबूतर बहोत फिक्रमंद थे। उन्होंने चिड़ियों के मुखिया से इस का हाल पूछा. मुखिया बोला, "आपको पेड़ पर का आला (घोंसला) डालना होगा."

# कबूतर ने घोंसला बनाया मगर ठीक से नहीं बना. उसने चिड़ियाँ को मदद के लिए बुलाया. चिड़ियाँ कबूतर को सुन्दर सा घोंसला बनाना सीखा ही रही थी कि कबूतर ने घमंड से कहा, " अरे इसमें क्या बड़ी बात है, ऐसा बनाना तो हमें भी आता है. हमें आपके सुझाव की ज़रुरत नहीं, हम खुद ही बना लेंगे." कबूतर को इतनी हीन भावना थी कि उसे किसी का भी कुछ कहना गवारा नहीं होता था. उसे जब भी चिड़ियाँ कोई सही सलाह देती, उसे लगता वह उसे नीचा दिखा रही है.
# कबूतर के बर्ताव को देख कर चिड़ियाँ ने कन्नी काट ली.

# कबूतर ने फिर से कोशिश की घोंसला बनाने की, मगर नहीं बना पाया. उसने फिर चिड़ियाँ को बुलाया, चिड़ियाँ उसे आहिस्ता आहिस्ता तिनका लगाना बता ही रही थी कि कबूतर फिर उछल पड़ा, " अरे यह तो मैं भी जानता हूँ. इसमें कौन बड़ी बात है. तुम तो ख़ामोखवाह मुझ पर रोब गांठ रही हो. मैं बेवकूफ नहीं"

# चिड़ियाँ बोली, "कबूतर ! जो कुछ नहीं जानता उसे बहम खाता है कि वह सब कुछ जानता है. ऐसे लोगों को कुछ भी नहीं सिखाया जा सकता." यह कह कर चिड़ियाँ फुर्र से उड़ गयी.

# तब से आज तक कबूतर ऐसे ही बेतरतीब घोंसले बनाता आ रहा है.

# अहंकारग्रस्त बुद्धि कभी भी इल्म हासिल नहीं कर सकती चाहे कबूतर हो या इंसान. चाहे नजमा हो या मैं...और नजमा कहती मैं नहीं हूँ कबूतर.

# नजमा ने बहुत कुछ जाना सीखा, सब से जाना सीखा और आज सीखा रही है.

# आज उसे यह कहानी याद आ गई. उसके लिए मैने फिर से कह दी. आप किसी के काम आये तो आप भी सार निकल लीजियेगा, थोथी हो तो उड़ा दीजियेगा.

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