Thursday, April 14, 2011

बिंदु बिंदु विचार : टेम्परेरी सम्मान

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  • एक दौर ऐसा था मेरे जीवन में, मैं प्रशंसा, यश, स्तुति के लिए मरता था. इन्हें पाने के लिए मैं तरह तरह के नाटक करता था. अपनी मेधा का इस्तेमाल मैं शब्दाडम्बरों द्वारा मेरे समर्थन में वातावरण बनाने में करता था, चाहे व्यक्तिगत स्तर पर हो अथवा सार्वजनिक स्तर पर. महफ़िलों में तालियाँ, वाह वाह, लोगों का झूठा सच्चा स्नेह-सम्मान मुझ पे मानो बरसता था, और मैं और अधिक पाने के लिए सतत प्रयास करता रहता था. इस क्रम में मैं सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत जीवन में धनी होता गया, किन्तु नैतिक और आध्यात्मिक पहलुओं में गिरता गया....यह बात और है कि एक बिंदु पर आकर यह पतन रुक गया, क्योंकि मैने इन सब में लिप्त ना होकर स्वयं को पृथक करना सीख लिया था. अनुभव ज़िन्दगी के और भी बहुत हैं, मगर एक समय एक बात ही शेयर करना यथेष्ट और श्रेय होता है,
  • आज एक लोककथा पढ़ी, जिसे बचपन में सुनी थी मैने और मैने भी खूब सुनाई थी. आईये हम सब मिलकर उसे मिलकर देखें.
  • एक गीदड़ एक बार भटकते भटकते जंगल से शहर की ओर आ निकला. वहां उसे ना जाने किस भाषा में किसी स्टाम्प पेपर पर छपा कोई दस्तावेज मिल गया, गीदड़ ने उसे उठा लिया. हालांकि वह उसका आलिफ भी नहीं पढ़ पाया था,उसने सोचा क्यों ना इस का लाभ उठाया जाय.
  • जंगल में जा कर उसने सब गीदड़ों को इकठ्ठा किया, इस धूर्त गीदड़ ने भाषण दिया, "भाईयों में शहर गया था, वहां मैं राज दरबार में गया और मैने आप सब के दुखों की गाथा गा कर महाराजा साहब को सुनाई. कहने लगा, "महाराज और उनके मंत्रिगण मेरे इस प्रेजेंटेशन से बहुत प्रभावित हुए थे."
  • उसने बताया, "महाराजा साहब ने महत्ती कृपा कर के हम सब लोगों के लिए शहर में जमीन मुहैय्या करने का आदेश दिया और यह पट्टा (राज्यादेश) जारी कर दिया. भाईयो ! दो महीने बाद की तारिख हम लोगों के लिए शहर में प्रवेश करने के लिए मुक़र्रर हुई है. हम शान से आज के दो माह बाद शहर में दाखिल होंगे. अब दो महीनो हमें जश्न मना चाहिए."
  • धूर्त गीदड़ को गीदड़ों ने अपना सरदार चुन लिया.
  • गीदड़ों ने खूब जश्न मनाना शरू कर दिया. जगह जगह धूर्त गीदड़ का अभिनन्दन होता. उसे दावतें दी जाती, अच्छा खासा खाना पीना कराया जाता एवं अन्य भोग विलास उसकी खिदमत में पेश किये जाते.
  • गीदड़ की तो बन आई थी. मगर एक चिन्ता उसे सताती-- क्या होगा दो माह के बाद ?
  • खैर वह नीयत तारिख भी करीब आ गयी. गीदड़ बोला, "भाईयों, रात के बारह बजे तारीख बदलती है..हमें अर्धरात्रि को नगर-प्रवेश करना है. सब तैयार रहना."
  • उसने सोचा था कि नगर-परकोटे के एक दरवाजे से घुसा कर दूसरे दरवाजे से काफिले को निकाल लाऊंगा यह बहाना बना कर कि महाराज ने फ़रमाया था आज मुहूर्त कर लो, कुछ और समय तुम लोगों की कालोनी बनने में लगेगा..फिर से चले आना.
  • शुभ मुहूर्त की पूर्व संध्या बहुत बड़ा उत्सव हुआ. नाच गान, मद्यपान, खान पान.....सब कुछ. सरदार याने धूर्त गीदड़ को गैंदे, गुलाब, जवाकुसुम, चन्दन, चमेली आदि की तरह तरह की मालाएं पहनाई गयी...तिलक लगाया गया..पावों में मोटे मोटे सोने के कड़े पहनाये गए...सुन्दर दुपट्टों दुशालों से उसे लाद दिया गया था. समझिये बस उसका मुंह ही थोड़ा-मोड़ा दीखता था बाकी सब कुछ कवर हो गया था.
  • रात्रि के ठीक बारह बजे...आगे आगे सरदार पट्टा लिए हुए और पीछे गीदड़ों का जत्था...गाते झूमते नगर प्रवेश किया गया.
  • रात्रि का सन्नाटा. चारों तरफ सुनसान...पिन ड्रॉप साईलेंस...बस तारों की रोशनी...थमी थमी फिजायें.
  • शहर के कुत्तों को लग गयी खुशबू गीदड़ों की. लगे जोर जोर से भूँकने...बाक़ी तो सब गीदड़ हलके थे..उलटे पाँव भाग लिए. बस सरदार अटक गया अपने हारों और दुशालों में...कुत्तों ने उसे चीर डाला..फाड़ डाला..नोच नोच कर खा भी डाला.
  • धूर्त गीदड़ का कंकाल सुबह देखा गया...पास में उस दस्तावेज के पन्ने बिखरे पड़े थे...जो कुछ भी हो सकता था मगर गीदड़ों के बसने के लिए महाराजा साहब द्वारा जारी किया गया पट्टा नहीं.

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