Sunday, November 1, 2009

एक नज़्म : बिना उन्वान.

उम्मीद होती
वस्ल की उनके,
जो होते दूर हैं हम से
निगाहों में
बसे हैं वो
इक रंगीं सुरूर जैसे.....

महसूस करो जाना
सनम को इन हवाओं में
एहसास प्रीतम के
बसे हैं इन फिजाओं में
तस्वीर-ऐ-यार हर लम्हा
छुपी है इन निगाहों में
सो गए हैं हम खोकर
उनकी इन पनाहों में है
ऐ सूरज ! क्यों सताते हो
हमें रहने दो बाहों में.....

हिज्र की बात को छोडो
वस्ल के राग न गाओ
मूंद लो नयन अब अपने
सनम को पास में पाओ....

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