Friday, November 6, 2009

अंतर्मन (आशु रचना)

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मेघ गरज कर बरस गए हैं
भीगा भीगा सा अंतर्मन
स्पर्श प्रिये यूँ पाकर तेरा
प्रफुल्लित मेरा यह तन.

नयी कोंपले खिल आई है
सौंधी सौंधी महक लिए
मस्ती ऐसी छाई मुझ पे
चरण बढ़ रहे बहक लिए.

सर्वत्र छवि देखूं मैं तेरी
श्वास नयन सब में तू है
वाणी में है बात तुम्हारी
चिंतन में हर पल तू है.

भंग तपस्या करने मेरी
तू बन अप्सरा थी आई
रंग में मेरे रंग गयी तू तो
अपनी हस्ती बिसरायी.

बात वही अंदाज़ अलग है
क्रिया वही उद्देश्य अलग है
गिरते हैं वो हम उठते हैं
सोये हैं वो हम सजग हैं.

दृष्टि प्रकाशित ज्ञान-पुंज से
चित्त आलोकित भाव कुंज से
अंतर है यह सब अनुभव का
आनन्दित मन मधुर गुंज से.

प्रक्रिया एक है श्वास-निश्वास की
ऊर्जा एक विकास विनाश की
भेद प्रिये बस है चेतन का
ऋतु एक है हास परिहास की.

जोड़ हो सकता दो अंकों का
घटाव भी होता उन अंकों का
विभाजन हेतु वही संख्याएं
गुणन भी होता उन्ही अंकों का.

मिलन विनष्टि हेतु हो जाता
मिलन प्रेम सेतु बन जाता
मिलन प्रभु बिम्ब हो जाता
मिलन शांति केतु बन जाता.

सत्य-असत्य अज्ञात भ्रम है
असमंजस जीवन का एक क्रम है
वृतुल संपूर्ण ही प्रेम जनित है
शून्य अवस्था परम गणित है .

घटित जो होता वो संयोग है
पल प्रत्येक नया प्रयोग है
निर्भर करता कैसे ले हम
हर घटना एक सुयोग है.

(गुंज=पक्षियों का कलरव)

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