Monday, November 21, 2011

मुखर मौन...

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नहीं राजपथ, पर पगडण्डी
पहुंचा सकती तुम्हे शिखर पर.

तुम्हे त्यागना होगा गजरथ
भक्तों की यह भीड़ निरर्थक,
सत्य असंग है, नहीं जानती
इसको अंधी श्रद्धा साधक,
स्व से जुड़ने पर आता है
आरोहन का मंगल अवसर.

न जाने कितने ही साधक
माया महाठगिनी से हारे,
बिना हुए कृतकर्मों का क्षय
पहुंचा कौन मुक्ति के द्वारे ?
प्रज्ञा में थिर हो जाने पर
द्वन्द-मुक्त होगा अभ्यंतर.

अनुकम्पा की दीप्त ज्योति से
हो जायेगा द्वैत तिरोहित,
नहीं रहेगा सुख-दुःख, होगा
सत-चित से आणंद समन्वित,
मुखर बनेगा मौन स्वयं वह
देगा सब प्रश्नों का उत्तर.

(विद्यार्थी जीवन में स्वर्गीय कन्हैया लाल जी सेठिया के सुजानगढ़ के तालाब किनारे के घर में आना जाना होता था, वहां कुछ गीत/कवितायेँ घटित हुई, जो मैने उनके पास बैठ कर लिख ली थी, उनमें से यह एक है...ये उनकी ही रचनाएँ है)

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