Sunday, November 27, 2011

चेलवे के पैंतरे...

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हमारी इन्टेलेक्ट चालाकी से हमारे पूर्वाग्रहों और स्वार्थों के तहत 'पिक एंड चूज' करती रहती है, तरह तरह के 'इंटरप्रेटेशन' करती कराती रहती है और अल्लाह/भगवान/ईश्वर, हालात और संजोग के सिर हम खाली पीली ठीकरा फोड़ते रहते हैं. अपने कलापों का पुनरावलोकन नहीं करते, स्वावलोकन कर आगे के लिए सुधार करने का नहीं सोचते...बस कोशिश करेंगे कि जो हम ने किया उसको कैसे 'मेंटेन' किया जा सके.और इस के कारण हम पीछे हो जाते हैं..'प्रेक्टिकल' में भी और 'स्पिरिचुअली' भी. हमारा 'डायनेमिज्म' इसी में है कि हम सबक लें...और जो सही है उस जानिब मूव ओन करें.

एक दफा एक उस्ताद और शागिर्द रेगिस्तान से गुज़र रहे थे. सफ़र के दौरान उस्ताद बातों ही बातों में अपने शागिर्द में अल्लह के लिए भरोसा जगाने के लिए कुछ ना कुछ बताते जा रहे थे : "अपने सारे किये को अल्लाह के सुपुर्द कर दो, हम सभी अल्ला की औलाद हैं. अल्लाह अपनी औलादों को बहुत प्यार करते हैं और उन्हें कभी भी नहीं ठुकराते." शागिर्द अपने उस्ताद की बातों को बड़ी शिद्दत से सुनता जा रहा था, हरेक लफ्ज़ को वह वैसे का वैसे रटे जा रहा था जैसा कि उसके उस्ताद, उसके गुरूजी ने कहा.

चलते चलते रात हो गयी. उन्होंने रेगिस्तान में एक जगह अपना डेरा जमाया. उस्ताद ने शागिर्द को नज़दीक ही किसी एक चट्टान से घोड़े को बांध कर आने को कहा. शागिर्द घोड़े को लेकर चट्टान तक गया...और जब घोड़े को बांधने लगा तो उसे उस्तादजी की दी हुई तक़रीर ख़याल आने लगी. उसने सोचा उस्ताद शायद मेरा इम्तेहान ले रहे हैं..इसलिए घोड़े को बांधने को कह रहे हैं...हालाँकि यह सोचते हुए उसके मन में आलस आ गया था, या पहले आलस आया था फिर ऐसा सोचा था..जो भी हो......सोचने लगा फिर कौन रस्सा बांधेगा..कौन चट्टान खोजेगा...उसने मन ही मन कहा- अरे अल्लाह तो सब का ख़याल रखते हैं..इसीलिए इस घोड़े की भी पूरी पूरी पर्वाह करेंगे और हमारी भी. मुझे घोड़े को नहीं बांधना चाहिए. .....और उसने घोड़े को खुला छोड़ दिया..नींद आ रही थी...आकर सो गया. सुबह उसने देखा कि घोड़ा नदारद है...दूर दूर तक उसका ठिकाना नहीं है. घोड़े के गायब होने का जिम्मा वह अल्लाह और गुरूजी को कोसते हुए उन्ही पर डाल रहा था.चेलवा गुरु के पास आ जाता है. गुरु आज गलत साबित हो गए..अवचेतन में ख़ुशी का पारावार नहीं...भक्ति श्रद्धा तो दिखाने की होती है..प्रेक्टिकल थोड़ी ही है..सोच रहा था चेलवा.

शागिर्द कहने लगा, "उस्ताद आपको अल्लाह और उसके तौर तरीकों के बारे में कोई इल्म नहीं..कल ही तो आपने बताया था कि हमें सब कुछ अल्लाह के हाथ में सौंप देना चाहिए, जो भी भला बुरा होता है उसकी मर्ज़ी और हुकुम के मुताबिक होता है. इसीलिए मैने घोड़े की हिफाज़त का जिम्मा अल्लाह पर डाल दिया था..मगर घोड़ा तो रफ्फूचक्कर हो गया...दूर दूर तक कहीं भी नज़र नहीं आ रहा है. खैर अल्लाह कि मर्ज़ी ऐसी ही थी...आप तो अल्लाह में खूब भरोसा रखने वाले हैं, मुझे डांटेंगे नहीं."

उस्ताद बोले, "बेवकूफ ! तुमने मेरी कही हुई बात को सुना था और रटा था...उसके मायने भी अपने मुताबिक निकाले हैं तुम ने. अल्लाह तो वाकई चाहते थे घोड़ा हमारे पास ही महफूज़ रहे. लेकिन जिस वक़्त उसने तुम्हारे हाथों घोड़े को बांधना चाहा तब तुमने अपने हाथों और दिल-ओ-दिमाग जो अल्लाह ने तुम्हे सौंपा है उनका इस्तेमाल अल्लाह के उसूलों के मुताबिक नहीं किया.....होशमंद भी नहीं रहा और खुद को पूरी तरह अल्लाह को नहीं सौंपा, अपने आलस की वज़ह से घोड़े को खुला छोड़ दिया, अब इस गलती को गलती नहीं मानते हुए कुछ और ही साबित करने की जद्दोजहद में हो."

चेलवा खीज कर शर्मिंदा हो रहा था या अपनी बात को साबित करने का कोई नया पैंतरा सोच रहा था.




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