Monday, November 21, 2011

देखना समझना

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# जाने अनजाने हम इतने संलिप्त हो जाते हैं अपने स्वयं के कच्चे पक्के सोचों और वान्छओं के संग, कि जो कुछ हमारे पास हैं, हमें प्राप्य है उसको पहचानने समझने और एन्जॉय करने, उसमें अपना संतोष देखते हुए,स्वयं को अंतर की बातों की तरफ मुखातिब करने का ज़ज्बा हम भूल से जाते हैं.

#हमारी ज़िन्दगी के मिशन धन अथवा अन्य भौतिक चीजें हो जाती है. जीवन के लिए तन-मन-धन सब अपना अपना रोल रखते हैं, अर्थ कमाना और वैभवशाली होना, सौन्दर्य और शरीर में सहज आनन्द पाना, यश अर्जित करना और ऐसे ही अन्य पहलू हमारे स्वाभाविक मानवीय प्रवृतियां है जिनके तहत कमो-बेस हम सभी होते हैं. संतुलन और होश के साथ यदि हम इन्हें लें तो कोई गुनाह और पापबोध नहीं हैं लेकिन जाने अनजाने इन्हें ही हम अपने जीवन का मकसद बना लेते हैं और अधिकांश समय, श्रम और शक्ति इन्ही में लगा देते हैं, भूल कर कि कुछ और है जिसे हमारा अंतर ढूंढता है..कहने का मतलब यह है कि हमारी प्राथमिकताओं में ये सब इतने हावी हो जाते हैं कि हम लगभग दूसरों की नज़रों के अनुमोदन के लिए जीने लग जाते हैं..बस बाहर की ओर देखते रहते हैं, हमारी दृष्टि अन्दर की तरफ मुड़ सके इसके सुजोग हम से दूर चले जाते हैं, या कहें कि हम खुद को इन से वंचित कर लेते हैं.

# यह कतई कोई नैतिकता की चर्चा और उपदेश नहीं बस हमारी ख़ुशी को री-डिस्कवर करने के क्रम में थोड़ी सी शेयरिंग है और खुद को भी रीमाईंडर है. यहाँ लिखते लिखते अपना भी रिविजन हो जाता है, ना जाने जीवन कब परीक्षा ले ले. तैयार तो रहना होता है ना.

# हाँ तो भाषण को विराम दे कर कहानी पर आया जाय.


# आसफुद्दोला एक नेक बादशाह था. बहुत दिलदार था, महादानी था यह बादशाह. जो भी उसके सामने हाथ फैलता बादशाह उसकी झोली भर देता था.
एक दफा एक फकीर टेर छेड़ रहा था, अपनी मार्केटिंग कर रहा था. "जिसको ना दे मौला, उसे दे आसफुद्दोला." बादशाह मुस्कुराया, उसने फकीर को बुलाया औए एक बड़ा सा तरबूज भेंट कर दिया. फकीर पर तो घड़ों पानी पड़ गया. उसे उम्मीद थी कि बहुत कुछ माल मिलेगा, मगर बादशाह ने तो बस एक तरबूज देकर काम निपटा दिया. खैर, फकीर ने तरबूज लिया और असंतुष्ट मन से आगे बड़ गया. थोड़ी देर में एक फकीर और गुज़रा जो गा रहा था, "मौला जो दिलवाए वो मिल जाये---मौला जो दे मिल जाये." आसफुद्दोला ने उसे चार आने दिये. चार आने पा कर यह फकीर ख़ुशी से झूमता गता, मौला के प्रति शुक्रिया अदा करता चल दिया.

# संजोग से दोनों फकीर एक चौराहे पर मिल गए एक दूजे से. जिसको चार आने मिले थे उसे भूख प्यास लगी थी और जिसे तरबूज मिला उसको परेशानी थी कि तरबूज का क्या करना, पैसों से तो मनचाहा सब कुछ मिल सकता है. पहले ने दूसरे को चार आने में तरबूज बेच दिया. तरबूज लेकर दूसरा फकीर ख़ुशी ख़ुशी अपने ठिकाने पर लौट गया. और पहले ने भी अपनी राह पकड़ ली. जब तरबूज कटा तो फकीर को अनएक्सपेटेड बहुत कुछ मिल गया और वह और खुश हो गया.

# कुछ दिन बाद पहला फकीर फिर उसी तरह गाते गाते आसफुद्दोला के इजलास में हाज़िर हो गया. बादशाह ने फकीर को पहचान लिया और कहा, "अरे तुम अभी भी मांगते हो, उस दिन तुम्हे एक तरबूज दिया था ना, कैसा निकला." फकीर बोला, मैने तो तरबूज उस को बेच दिया जिस को आपने चार आने दिये थे. जवाब में बादशाह ने कहा अरे उसमें तो मैने तुम्हारे लिए मोहरें (सोने के सिक्के) भरे थे. इसका मतलब तुम्हारी सब से बड़ी कमजोरी यही है कि तुम लालच में भागते रहते हो..जो मिलता है उसका उपयोग तुम तह-ए-दिल से अल्लाह के करम समझ कर नहीं करते. अरे तुम को तो वह सब मिल जाता जिसकी तुम ने उम्मीद भी नहीं की थी. काश ! तुम संतोष कर के सुकून के साथ जीने का ज़ज्बा रखते. काश तुम धीरज रखते. काश तुम देखते समझते.



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