Monday, November 21, 2011

अक्स...

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रूठा रूठा सा
लग रहा था
आसमां,
रोया था
फूट फूट कर
मासूम बादल..
भीग गयी थी
धरती
संवेदन के जल से,
जगा था
एक सोया बीज
जमीन की
भीतरी तह में,
पहले फूटी थी
जड़ें
तारीकी में,
फिर उभरे थे
अंकुर
रोशनी में,
जो था
अनदेखा,
लगा था
खिल कर दिखने..

कहा था उस दिन
एक फूल ने
एक बादल से,
बादल !
ये जमीन,
ये फिजा,
ये बहार
ये खिज़ा
यह चाँद
ये सूरज,
ये नूर-ए-इलाही,
और
ये यह गुलाबी चादर जो
फैली है चमन में,
आसमां तो
ह़र यक में समाया,
तू उसका और
वह है तेरा ही साया,

सुन!
ये चांदनी
कुछ भी नहीं
बस है
सूरज का ही
अक्स,
जैसे कि
इश्क भी तो
कुछ और नहीं
है दिलों में
कुदरत का रक्स..



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