मुल्ला नसरुद्दीन को हो गयी थी डर और घबराहट की मानसिक बीमारी याने 'फोबिया सिंड्रोम'. जब भी फ़ोन कि घंटी बजती, मुल्ला घबड़ा जाता----भयाक्रांत हो जाता. तरह तरह के दुश्विचार आने लगते जेहन में ---ग्रोसरी वाले ने बकाया का तगादा करने फ़ोन किया हो, मालिक मकान बाकि किराये के लिए डांटना चाहता हो, घर खाली करने के नोटिस कि खबर देनेवाला हो--- बॉस ने ऑफिस से कोई झाड़पट्टी पिलाने के लिए फ़ोन किया हो---सास ने बीवी की शिकायतों को डील करने के लिए फुनिया हो---किसी 'भाई' का कोई धमकी भरा फ़ोन हो----काबुलीवाले खान का क़र्ज़ वसूली के लिए धमकाना हो ,नाना प्रकार कि चिंताएँ मुल्ला को सताने लगती, फ़ोन कि घंटी के साथ. बस ऐसा हो गया कि मुल्ला के लिए फ़ोन उठाना मुश्किल सा हो गया. अपनी आदत के मुताबिक मैंने बिना मांगी सलाह दे डाली, "मुल्ला किसी मनोचिकित्सक को दिखा दो....इलाज करा लो...नहीं तो जीना दूभर हो जायेगा."
जिंदगी में शायद पहली दफा सर्वज्ञानी मुल्ला ने इस नाचीज मास्टर (प्रोफ़ेसर) कि बात मान ली.
दो तीन महीने मुल्ला का इलाज चला. दवाईयां दी गयी और काउंसेलिंग भी हुई. एक दिन मैं मुल्ला के घर गया, वह फ़ोन पर था. उस दिन मैंने उसे कांपते, घबडाते या डरते हुए नहीं पाया हालाँकि फ़ोन का चोंगा उसके कान और मुंह के बीच था. वह था कि बड़ी तसल्ली से बतियाये जा रहा था.....नॉन-स्टाप.
फ़ोन पर वार्तालाप समाप्त हुआ. मैंने मुल्ला से पूछा/कहा, " मालूम होता है कि इलाज कामयाब रहा...अब डर तो नहीं लगता ?"
मुल्ला ने कहा, " अचम्भे की बात है, इलाज ज़रुरत से ज्यादा फायदेमंद रहा."
मैंने पूछा, "अमां यार नसरुद्दीन हमें भी बताओ ना, ज़रुरत से ज्यादा फायदे से क्या मतलब ?"
मुल्ला लगा कहने, "अब तो हिम्मत आ गयी कि घंटी नहीं भी बजती तो भी मैं फ़ोन कर लेता हूँ. पाहिले घंटी बजने से डरता था, अब अभी अभी जो फ़ोन कर रहा था, घंटी बजी ही नहीं थी और मैंने मालिक मकान से बात शुरू कर दी, उसे डांट भी दिया जोरों से. प्रोफ़ेसर, वह इतना डर गया है कि बोलता भी नहीं उस जानिब से. चुप ! सांस कि आवाज़ का भी मालूम नहीं होता. अब बता हुआ ना ज़रुरत से ज्यादा फायदा."
मैंने सर पकड़ लिया. "हे प्रभु! यह क्या हो गया ? पहले मेरा दोस्त थोडा सा 'पगला' था और अब......."
जिंदगी में शायद पहली दफा सर्वज्ञानी मुल्ला ने इस नाचीज मास्टर (प्रोफ़ेसर) कि बात मान ली.
दो तीन महीने मुल्ला का इलाज चला. दवाईयां दी गयी और काउंसेलिंग भी हुई. एक दिन मैं मुल्ला के घर गया, वह फ़ोन पर था. उस दिन मैंने उसे कांपते, घबडाते या डरते हुए नहीं पाया हालाँकि फ़ोन का चोंगा उसके कान और मुंह के बीच था. वह था कि बड़ी तसल्ली से बतियाये जा रहा था.....नॉन-स्टाप.
फ़ोन पर वार्तालाप समाप्त हुआ. मैंने मुल्ला से पूछा/कहा, " मालूम होता है कि इलाज कामयाब रहा...अब डर तो नहीं लगता ?"
मुल्ला ने कहा, " अचम्भे की बात है, इलाज ज़रुरत से ज्यादा फायदेमंद रहा."
मैंने पूछा, "अमां यार नसरुद्दीन हमें भी बताओ ना, ज़रुरत से ज्यादा फायदे से क्या मतलब ?"
मुल्ला लगा कहने, "अब तो हिम्मत आ गयी कि घंटी नहीं भी बजती तो भी मैं फ़ोन कर लेता हूँ. पाहिले घंटी बजने से डरता था, अब अभी अभी जो फ़ोन कर रहा था, घंटी बजी ही नहीं थी और मैंने मालिक मकान से बात शुरू कर दी, उसे डांट भी दिया जोरों से. प्रोफ़ेसर, वह इतना डर गया है कि बोलता भी नहीं उस जानिब से. चुप ! सांस कि आवाज़ का भी मालूम नहीं होता. अब बता हुआ ना ज़रुरत से ज्यादा फायदा."
मैंने सर पकड़ लिया. "हे प्रभु! यह क्या हो गया ? पहले मेरा दोस्त थोडा सा 'पगला' था और अब......."
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