Saturday, July 25, 2009

रोता हूँ मैं...........

(यह टिपण्णी रचना लिखने के समय की है )

अमूमन मैं आप सब कि रूचि के अनुकूल ही रचनाएँ यहाँ पोस्ट करता हूँ, आज एक घटनाजनित दुःख था मुझे इसलिए मन शांत करने हेतु यह शब्द लिखे थे मैने।आप मेरे आत्मन हैं , अपने हैं, इसलिए शेयर कर रहा हूँ.यदि अच्छा ना लगे तो बस इग्नोर करियेगा.किसी ना किसी रूप में यह रचना आजकल के तथाकथित धर्माधिकारियों कि असलियत बयान कर रही हैं,वे चाहे कोई भी हो और हम सब उनके चंगुल में फँस कर और अधिक सुसुप्त होते जा रहे हैं.

रोता हूँ मैं...........

# # #
आदि शंकराचार्य
मेरी दृष्टि में
एक आन्दोलन थे
व्यक्ति नहीं,
सदियों में कभी कभी
आतें हैं ऐसे क्रांतिदूत
अपने अनुभवों को
बांटने और जन-जन को जगाने,
स्थापित किये थे उन्होंने
कई केंद्र जहाँ से ज्ञान
भक्ति और साधना का
आलोक फ़ैल सके
सारे भारतवर्ष में,
हर सोच में क्रांति थी
करुणा थी समझ और प्रेम था......
कालांतर में पीठ और मठ
बन गए थे गद्दियाँ
अहम्-पोषण की,
ज्ञान और अनुभूति की
जगह ले ली थी
"Holier than thou." के
Attitude ne...,
जगाने की बातें हो जाती थी
कभी कभार मंचों से,
अधिकांशत लगता था ऐसा
यह भी एक युद्घ है बर्चस्व का,
जिसमें शब्दों और तर्कों का
किया जा रहा है
इस्तेमाल
अस्त्रों के रूप में...
घर संसार का त्याग
जिन्होंने किया
स्वयं की तलाश में,
ना जाने वो क्यों
यश लोलुपता
पद लोलुपता के
आधीन हो कर
क्या चाहते हैं पाना ?
मैं असली
तू नकली
यह मेरा आधिकार
यहाँ तुम्हारा क्या काम
सामान्य जन की तरह
लड़ते हैं
झगड़ते हैं,
खटखटाते हैं
न्यायालय का द्वार
करतें हैं
गुट-बंदी,
जब स्वयं
संग स्वयं के
ना हो सके एक
मिला सकेंगे कैसे
आत्मा को परमात्मा से ?
कैसे जगा सकेंगे लोगों को ?
कैसे बता सकेंगे रहस्य इस माया का?
कैसे लायेंगे एकता इस
विशाल देश में ?
जिसके हर कोने पर उस
मनीषी ने चमकाया था
ज्ञान पुंज........
जो चला था अकेला
सत्य ज्ञान कि राह पर,
रोता हूँ याद कर कर के
उस धार्मिक दिग्विजयी को
जिसने प्रेम, ज्ञान और शुद्धता से
जीता था
परम विरोधियों को
छोडा नहीं था उनको
अकेला
चला था वह
लेकर साथ उनको..........

(25 July, 2009)

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