Tuesday, March 8, 2011

बिंदु बिंदु विचार ; सुबहें

  • वैसे तो सुबहें खुशगवार होती है. चिड़ियों की चहचाहट, सूरज का होले से उदय होना, मंदिर की घंटियाँ, तरोताजा चेहरे, उत्साह का माहौल और भोर बेला में गायी गयी प्रभातियां..सब मिलजुल कर मन को प्रसन्न करती है. सब कुछ नया नया सा लगता है. ऐसा तब होता है ना जब हम 'यहीं और अब' (Here and Now) में जीने का ज़ज्बा लिए जो होते हैं.

  • कुछ सुबहें ना जाने क्यों उदास उदास सी लगती है. मन खिन्न सा होता है. सब जगह उदासी बिखरी हुई स़ी लगती है. सब कोई पराये से लगने लगते हैं. खुद को खुद से कोफ़्त होने लगती है.

  • अपनी गलतियां या गलतफहमियां बार बार सामने आकर सताने लगती है. ऐसा लगने लगता है मानो अब तक जो कुछ हुआ जीवन में वृथा ही था. बहुत कुछ खोने के एहसास मलिन करने लगते हैं. ऐसा तब होता है ना जब अनायास ही माथे पर विगत का बौझा हावी हो जाता है.

  • अब आज को ही लो. सुबह बिस्तर से उठते ही लगा कि यह सुबह कुछ और है. अन्दर से कुछ टूटा टूटा सा लग रहा था या कहूँ कि सुना सुना सा..ऊर्जा जैसे निचुड़ गयी हो...तन मन दोनों ही निर्बल से महसूस हो रहे थे. सुबह उठते ही 'ॐ नमः शिवाय' बोलने का मन नहीं हो रहा था, कभी कभी 'बुद्धं शरणम गच्छामि' बोलता हूँ आज वह भी नहीं आ रहा था, 'नमस्कार महामंत्र' के पांचों सूत्र भी आस पास नहीं आ रहे थे. कभी कभी संसार की शून्यता के आभास होते हैं, मौन में वैसा भी नहीं था आज.

  • एक पुतले की तरह, चलते चलते बालकोनी में खड़ा हो गया था मैं. झांक रहा था बाहर की ओर.. पड़ोसी के घर के आगे सायकिल वेन खड़ी थी..मेरा मारवाड़ी पड़ोसी जो एक 'तेल मिल' का मालिक है बाहर आकर खड़ा था...लोहा लक्कड़, पुराने बर्तन, अप्लायिन्सेज और कुछ और कबाड़ का ढेर सा लगा हुआ था, करोड़ों का मालिक जिसने लाखों अपने घर को सजाने में खर्च किये, कबाड़ीवाले से बहुत ही चतुराई से सैंकड़ों के लिए मोल भाव कर रहा था. मुझे याद आया, ऐसा तो मेरे साथ कई दफा हो चुका था. मैने तो हमेशा बिना देखे ऐसे या इन से भी बेहतर कबाड़ को अपने कारिंदों के सुपुर्द कर दिया था. उन्होंने क्या किया उसका मुझे नहीं मालूम. कभी कभी सुना था कि कुछ चीजें किसी एक ने काम की पाई थी और एक बड़ी चर्चा विचर्चा के बाद दूसरे की समूल्य सहमति से पा ली थी. मेरे एक चुगलखोर सेवक ने कहा था कि 'झमकूड़ी' रसोईदारण ने 'बेगजी' को चांदनी रात में 'राजी' किया तब टेलीविजन उसको मिल सका. जो भी हो मैने सोचा जब यह बनिया कबाड़ को मुद्रा में बदल सकता है, मैं क्यों नहीं...और सोचा जब बेगजी पुराने टेलीविजन के लिए झमकूड़ी का संग पा सकते है तो ????छि छि कैसा सोचने लगा मैं......मगर यहाँ सोच रुक गए. फिर भी ना जाने एक पछतावा खुद के सयानेपन और दुनियावी होशियारी में कमज़ोर होने का मेरी सारी विद्वता और बहादुरी को लील रहा था.

  • इस कबाड़ सलटाने का कार्यक्रम देखने के संग संग ना जाने कितने पहलुओं पर मेरे खुद के ठगे जाने के, लूटे जाने के, बेवकूफ बन जाने के, अवसर चुक जाने आदि के उदाहरण जेहन में आने लगे...और मैं खुद को और सुस्त, ढीला ढीला सा पाने लगा.

  • अचानक नज़रें बालकनी के किनारे वाले पेड़ पर पड़ी...कल तक जो पेड़ पतझड़ के असर से 'नंगा-बुच्चा' सा हो गया था...आज उस पर सुन्दर हरी कोंपले और पत्ते विराजित थे..बहुत खूबसूरत लग रहा था वह पेड़..कितना खिला खिला सा मुस्कुराता सा. आज की नयी ज़िन्दगी..नयी सुबह को हर्षित मन से उत्सव के रूप में मना रहा था...कल क्या हुआ उसे याद नहीं था...मैने भी पेड़ की मुस्कान का जवाब अपनी मुस्कान से दिया....खुश हो गया था मैं.

  • 'सोनू' मेरे परम सहयोगी और स्नेहिल साथी (जिसे आप नौकर कहते हैं) ने आवाज़ लगायी, "बन्ना आपकी एक चाय कब कि ठंडी हो कर बेकार हो गयी थी. अब नयी चाय लेकर आया हूँ, 'भाम्पे' निकल रही है..पी लीजिये. नहीं तो दिन अच्छा नहीं गुज़रेगा..सुबह की पहली चाय मैं कहा करता हूँ ईश्वर की वंदना की तरह होती है.

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