* उसके खानदान के एक बुजुर्ग राजस्थानी के एक स्वनामधन्य मनीषी कवि के दोस्त हुआ करते थे. जन्म से वे कवि महोदय ओसवाल जैन थे और वे बुजुर्ग राजस्थानी मुस्लिम रजपूत. दोनों कि जड़ें रजपूत खानदान से थी. दोनों के पूर्वजों ने किसी समय जैन एवं इस्लाम को स्वीकार किया था. मगर रगों में राजपूती का असर कायम था.
* दोनों के रहनसहन में राजशाही शालीनता और अभिरूचि टपकती थी, दोनों ही कुछ मामलों में बहुत कंजरवेटिव थे तो कई पहलुओं पर बहुत ही उदारमना भी. हाँ एक बात कोमन थी वह थी राजपूताने की आन बान शान से मोहब्बत, संगीत और साहित्य में रूचि. दोनों ही शाकाहारी और चोरी से दुर्गा माता के सेवक ( जैन और इस्लाम धर्म देवी पूजा को नहीं जो मानते). माताजी महाराज (दुर्गा) के भक्त होने के नाते एक और दोस्त उनसे जुड़ गया था. वे थे किसी ठिकाने के ठाकर साहब. ठाकर साहब खाने पीने के शौक़ीन थे जब कि हमारे ऊपर लिखे दोनों बुजुरुगवार थे टीटोटलर.
* तीनों की खूब छनती थी। ठाकर साहब ऊपर से बहुत कठोर मगर दिल से सुकोमल. कहने को वे दोनों को घास खाने वाले घोड़े, बैल इत्यादि संबोधनों से नवाजते थे मगर अन्तकरण से दोनों से प्रेम ही नहीं उनका बहुत सम्मान करते थे. यह तिगडी इलाके में मशहूर थी. हमारे कवि महोदय थोड़े समाजवादी खयालात के थे. मुस्लिम बुजुर्ग मस्त मौला थे॥शास्त्रीय संगीत के शौक़ीन..भजन ग़ज़ल एक सी शिद्दत से गया करते थे. ठाकर साहब थे पक्के हिन्दू.
# एक धागा आपसी स्नेह को तीनों को सब बातों से परे जोड़े रखता था. धर्म निरपेक्षता की बातें वे कभी नहीं करते थे...मगर सांस्कृतिक एकत्व को जिया करते थे. मुस्लिम बुजुर्ग की बहन का पाकिस्तान में जब देहांत हुआ तो तीनो एक साथ 'मोखाण' (मातमपुर्सी) के लिए कराची गए थे.एक दफा किसी ने कवि महोदय पर कोई फब्ती कस दी थी ठाकरां की दोनाली हवा में आग उगलने लगी थी. जुम्मे जागरण की सारी व्यवस्था खान साहब किया करते थे.
# शब्दों पर एक दफा इन तीनों में चर्चा हुई थी...आज उनकी एक साझा रचना को गद्य के रूप में आप से बांटता हूँ।
# ठाकर साहब बोले : मिनख (पुरुष) लुगाई ( औरत) की तरह शब्द भी अकेले में नंगे होते हैं. कुछ शब्द निहायत ही शरीफ, कुछ लुच्चे लफंगे होते हैं.
# खान साहब बोले : कुछ शब्द माड़े (दुबले पतले) कुछ शब्द ताजे (हृष्ट-पुष्ट) होते हैं. कुछ बड़े सलीके वाले तो कुछ बदमिजाज़, बदतमीज़ बेढंगे होते हैं.
# अबके कवि महोदय ने फ़रमाया : कुछ शब्द मनुष्य की तरह पूरे सामाजिक हैं. इनके परिवार हैं, और उनके टाबर टीकर (बच्चे) भी हैं.
# ठाकर साहब फरमाते हैं : शब्द भी बंधे हैं. आदमी की मानिन्द रीत रिवाज से. इन्हें भी वास्ता है, कल से, आज से लिहाज़ से.
# तीनों ने मिल कर 'सम अप' किया : इन शब्दों में ना, हिन्दू, मुसलमान और जैन हैं. इनमें द्विज, शुद्र, कुम्हार, खाती (सुथार) कायमखानी और राठोड हैं.
# कवि महोदय बोले : किसी भी रचना में देखिये, एक शब्द दुल्हा है बाकी सब बाराती है.
# इस तरह से तिगडी की सभाएं और गोठें होती थी.
* दोनों के रहनसहन में राजशाही शालीनता और अभिरूचि टपकती थी, दोनों ही कुछ मामलों में बहुत कंजरवेटिव थे तो कई पहलुओं पर बहुत ही उदारमना भी. हाँ एक बात कोमन थी वह थी राजपूताने की आन बान शान से मोहब्बत, संगीत और साहित्य में रूचि. दोनों ही शाकाहारी और चोरी से दुर्गा माता के सेवक ( जैन और इस्लाम धर्म देवी पूजा को नहीं जो मानते). माताजी महाराज (दुर्गा) के भक्त होने के नाते एक और दोस्त उनसे जुड़ गया था. वे थे किसी ठिकाने के ठाकर साहब. ठाकर साहब खाने पीने के शौक़ीन थे जब कि हमारे ऊपर लिखे दोनों बुजुरुगवार थे टीटोटलर.
* तीनों की खूब छनती थी। ठाकर साहब ऊपर से बहुत कठोर मगर दिल से सुकोमल. कहने को वे दोनों को घास खाने वाले घोड़े, बैल इत्यादि संबोधनों से नवाजते थे मगर अन्तकरण से दोनों से प्रेम ही नहीं उनका बहुत सम्मान करते थे. यह तिगडी इलाके में मशहूर थी. हमारे कवि महोदय थोड़े समाजवादी खयालात के थे. मुस्लिम बुजुर्ग मस्त मौला थे॥शास्त्रीय संगीत के शौक़ीन..भजन ग़ज़ल एक सी शिद्दत से गया करते थे. ठाकर साहब थे पक्के हिन्दू.
# एक धागा आपसी स्नेह को तीनों को सब बातों से परे जोड़े रखता था. धर्म निरपेक्षता की बातें वे कभी नहीं करते थे...मगर सांस्कृतिक एकत्व को जिया करते थे. मुस्लिम बुजुर्ग की बहन का पाकिस्तान में जब देहांत हुआ तो तीनो एक साथ 'मोखाण' (मातमपुर्सी) के लिए कराची गए थे.एक दफा किसी ने कवि महोदय पर कोई फब्ती कस दी थी ठाकरां की दोनाली हवा में आग उगलने लगी थी. जुम्मे जागरण की सारी व्यवस्था खान साहब किया करते थे.
# शब्दों पर एक दफा इन तीनों में चर्चा हुई थी...आज उनकी एक साझा रचना को गद्य के रूप में आप से बांटता हूँ।
# ठाकर साहब बोले : मिनख (पुरुष) लुगाई ( औरत) की तरह शब्द भी अकेले में नंगे होते हैं. कुछ शब्द निहायत ही शरीफ, कुछ लुच्चे लफंगे होते हैं.
# खान साहब बोले : कुछ शब्द माड़े (दुबले पतले) कुछ शब्द ताजे (हृष्ट-पुष्ट) होते हैं. कुछ बड़े सलीके वाले तो कुछ बदमिजाज़, बदतमीज़ बेढंगे होते हैं.
# अबके कवि महोदय ने फ़रमाया : कुछ शब्द मनुष्य की तरह पूरे सामाजिक हैं. इनके परिवार हैं, और उनके टाबर टीकर (बच्चे) भी हैं.
# ठाकर साहब फरमाते हैं : शब्द भी बंधे हैं. आदमी की मानिन्द रीत रिवाज से. इन्हें भी वास्ता है, कल से, आज से लिहाज़ से.
# तीनों ने मिल कर 'सम अप' किया : इन शब्दों में ना, हिन्दू, मुसलमान और जैन हैं. इनमें द्विज, शुद्र, कुम्हार, खाती (सुथार) कायमखानी और राठोड हैं.
# कवि महोदय बोले : किसी भी रचना में देखिये, एक शब्द दुल्हा है बाकी सब बाराती है.
# इस तरह से तिगडी की सभाएं और गोठें होती थी.
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