Friday, March 4, 2011

एहसासे कसूर (आशु रचना)


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लिए बौझा
एहसासे कसूर का
जी सकोगे कैसे,
साँसों को लेते लेते
ज़हर
पी सकोगे कैसे...

माना कि तुम ने
कर डाला वह
जो ना हो रहा
गवारा तुझको,
किस पैमाने से
मापते हो
कसूर अपना
बताना तो
जरा मुझ को....

इंसान ने बनाए हैं
कई पैमाने
इंतेजामिया के
खातिर,
ज़रूरी नहीं कि वो हो
मंज़ूर
खुदायी फैसले के खातिर....

होता गर कुछ ऐसा
तो पैदा होता एक
बालक
महज़ शादीशुदा जोड़े के
मिलन से,
क्यों हो जाता है ऐसा
नर- मादा की
कुदरती खिलन से....

बरसता तब तो
बादल
जहां होती है
जमीं प्यासी,
रहा करते क्यों ना
खुश सारे
क्यों होती है
उदासी.....

बुनियादी सच
कुदरत के
कायम है यहाँ पर,
देखो उनको
और सोचो
तुम 'चूके' हो कहाँ पर,

हर पल होता है
आगाज़
एक नयी ज़िन्दगी का,
नहीं मोहताज़ है कोई
किसी का
करने 'उसकी' बंदगी का..

सिर उठाओ और
जीयो,
ज़िन्दगी है लिए तेरे,
बताओ ना किन
रातों के
कभी नहीं हुए सवेरे..

कसूरगवार खुद को
तू ने
समझते समझते,
क्यों बनाया है दोज़ख
खुद को
शिकंजों में कसते कसते..

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