Tuesday, March 22, 2011

बिंदु बिंदु विचार : सही और गलत

* जंगल के भी एथिक्स होते थे, जिनका निरूपण भगवानजी ने स्वाभाविकता और सब के दैनदिन एवं दीर्घकालीन हितों को देखते हुए किया था.

उनमें से एक था जंगल के सभी जानवर निर्भय हो कर वहां से बहती नदी से पानी पी सकते थे. कोई भी किसी पर अपनी दादागिरी नहीं चला सकता था. हाँ यदि कोई किसी दूसरे का 'इरादे के साथ' अतिक्रमण करेगा, उसके प्रति पीड़ित जानवर भगवान से कम्प्लेंट कर सकता था और साबित होने पर भगवानजी उस पर उचित एक्शन ले लेते थे. बाई एंड लार्ज सभी जानवर भगवान की बताई इस एथिक्स का 'लेटर्स एंड स्पिरिट' में पालन करते थे. वैसे भी पशु इंसान की तरह टेढ़ी मेढ़ी सोच नहीं रखते. हाँ अपवाद सभी जगह पाए जाते हैं.

* नदी किनारा एक निर्भय क्षेत्र था, जहां शांति से बाघ और बकरी एक घाट पानी पी सकते थे.

* एक दफा की बात है एक मेमना नदी पर पानी पी रहा था. जैसा कि होता है, मेमना नदी के पानी में मुंह अपना डाल कर सहज स्वाभाविक रूप से पानी पी रहा था.

* इतने में बाघ वहां आ गया। बाघ बूढा था. अपनी अक्षमता के कारण कहिये या मिथ्या अभिमान के कारण उसके मन में यह ग्रंथी घर कर गयी थी कि प्रयेक जानवर उसकी बात माने, उसकी गलत सलत बातों को चुप चाप सुने, उसकी किसी भी बेजा बात के लिए कुछ भी ना कहें. बाघ को बहम था कि उसके दहाड़ने को सुन कर सब डर जाते हैं.
# जनरली बाघ जिस जगह खड़ा हो कर पानी पीता था उसी जगह खड़ा हो कर मेमना भी पानी पी रहा था. उसे इस तरह देखना बाघ को गवारा ना हुआ. बाघ बोला, "मेमने तुम ने मेरे साथ ज्यादती की है, अरे मूर्ख तालाब में अपना गन्दा मुंह डुबो दिया, सारा का सारा पानी गन्दा कर दिया तुमने ऐ मिमियाने वाले मेमने. अब मैं तुम्हे इसकी सजा दूंगा."
# मेमने ने कहा, "नहीं बाघ राजा, मैं तो नोर्मल कोर्स में पानी पी रहा था, अपनी प्यास बुझा रहा था, जैसा कि मुझे करना चाहिए, इसमें पानी गन्दे करने का सवाल कहाँ से उठ गया ? यह तो बहता पानी निर्मला है. नदी का पानी तो राजाजी हमेशा ही तरोताज़ा और नया रहता है."

# बाघ ने देखा उसका यह आरोप तो बेकार गया. अब लगा कहने, "अरे तुमने यह जवाब देकर मेरी बदतमीजी की है, क्या मुझे अक्ल नहीं, मैं नहीं समझता इतनी स़ी बात. अरे तुम लोग हो ही ऐसे." फिर अपनी बात को और मज़बूत करने के लिए एक मिथ्या आरोप भी दाग बैठा, "साले तुम ने मुझे गाली दी. देखता हूँ मैं तुझ को."

# मेमना नयी पीढ़ी का पढ़ा लिखा आज़ाद ख़याल नौजवान था. उसने कहा, " हुज़ूर, मैने तो अपनी सटीक बात आपको कही, आपने जो कहा उसका क्लेरिफिकेशन दिया. गाली तो मैने बिलकुल नहीं दी."

# "मेरे से जुबान लड़ा रहा है साले मिमियाने वाले तुच्छ प्राणी. शर्म नहीं आती तुम. जानते नहीं मैं कौन हूँ. अभी दहाड़ना शुरू किया तो भाग छूटोगे." बाघ बोला, "अरे तुम ने आज गाली नहीं दी तो पहले दी होगी, तुम ने नहीं तो तेरे बाप ने दी होगी."

# मेमना समझ गया, बाघ साहब उसको दबाने का ज़ज्बा लिए हैं। वह मंद मंद मुस्कुराया.

# बाघ को यह और भी बहुत बुरा लगा. तिलमिला गया था बाघ. अपना आप खो बैठा था. हिंसक हो गया था. चूँकि निर्भय क्षेत्र में भगवानजी ने ऐसा कुछ इलेक्ट्रोनिक टाइप का अरेंजमेंट कर रखा था कि कोई भी किसी को शरीरिक नुकसान नहीं पहूंचा सकता था इसलिए बाघ मेमने पर अटेक नहीं कर सकता था. वह इधर से उधर राउंड लगाने लगा. जोर जोर से दहाड़ने लगा, यहाँ तक कि उसकी सांस फूलने लगी. यही नहीं वह जगह जगह से खुद को नोचने लगा था.

# दूसरे जानवर भी यह तमाशा देख रहे थे.

# कुछ जानवर मन में आनन्दित थे किन्तु सहानुभूति की लिप सर्विस दे रहे थे. समान विचारों वाले भी जुट गए थे, बाघ को सलाह दे रहे थे कि क्यों ना, एक मेमना विरोधी मोर्चा बनाया जाय. कोई भगवान को कोस रहा था. कोई एथिक्स को. हाँ क्या उचित है क्या अनुचित ? सर्वस्वीकृत एथिक्स के प्रकाश में इस सवाल को कोई नहीं देख रहा था. मुख्य मुद्दे को गौण करके, यही बात बार बार उठाई जा रही थी कि तुच्छ मेमने ने बाघ कि बेइज्जती कर दी. मामला समझ का नहीं अहम् और अहम् पोषण का हो गया था.

# मेमने के भी समर्थक जुट गए थे. उन्हें मेमने के किये और कहे में कोई दोष नज़र नहीं आ रहा था, सब कुछ लोजिकल और परिस्थितिजन्य लग रहा था.

# मेमने ने सोचा पानी पी लिया, प्यास भी फ़िलहाल मिट गयी. कौनसा यह जंगल के राजा का आम चुनाव है. अरे जो सही है वह सही रहेगा जो गलत है वह गलत. वह धीरे से खिसक गया था.

# मेमने को गुरु का कहा याद आ रहा था, "विवादों से लाभ उठाने का सब से अच्छा तरीका है कि विवादों से जहां तक हो सके बचा जाय. जो सच है कह दीजिये, और छोड़ दीजिये इस पर नज़र रखना कि सामनेवाला क्या कर रहा है ?"

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