Friday, June 11, 2010

नदी की लहर या बहता दरिया (दीवानी सीरीज)

नदी की लहर
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जब भी वह भावुक होती कुछ ऐसे उदगार उसकी जिव्हा से प्रस्फुटित होते या उसकी 'बॉडी लैंग्वेज' से अभिव्यक्त होते जिनमें विरोधाभास से परिलक्षित होते.....शायद शब्दों का निर्वचन होता था वह क्योंकि जब भी में मन की आँखों से उन्हें देखता, दिल से सुनकर अंगीकार करता तो मुझे भी ऐसा ही लगता की पूर्ण सत्य वही है. देखिये ना उसकी यह रचना :
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"तुम आकर
खड़े हो जाते हो
मेरी राहों में
मैं नदी की
लहर की तरहा
बदलने लगती हूँ
अपना रास्ता.

कितनी शांत थी मैं
तूफानों को
बर्दाश्त करनेवाली
नीरवता की तरहा
और
अब तुम्हारे
आने पर
लगती हूँ
मचलने
जब की
खड़ी रहती हूँ
निस्तब्ध
शिला की तरहा.

पराजित
मुद्रा में
विजय
बोध होने
लगता है
मुझे एक साथ."

बहता दरिया
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मेरी कलम से उन दिनों कुछ ऐसे अल्फाज़ निकल पड़ते थे :

बहते जाना ही
जिंदगी है
बहा लो मुझे
संग अपने
ऐ मौज-ए-दरिया !
हार और जीत का
एहसास तो
गैरों में होता है.

तू ठहरी ठहरी स़ी
ठंडी स़ी
जमी हुई स़ी
बेहोश सी थी
बिलकुल
जमी जमी सी
बर्फ की तरहा.
देकर तपिश
मोहब्बत की
पिघलाया था
तुझको मैने
और
मिलकर हो गए थे
हम एक-मेक,
फिर ना
तेरा वुजूद था
और
ना ही मेरा
बस था
कुछ तो
वह था
हमारा
यंग और येन की
तरहा
जो दीखते हैं
अलग
मगर होतें हैं जुड़े
पूरा करने
'वर्तुल'
जिंदगी का.

मिल कर
बन गए हैं
हम
बहता दरिया
आओ !
बहते रहें हम,
बहते रहें....

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