Wednesday, June 9, 2010

समाज : भीड़ की नज़रों का अनुमोदन..(दीवानी सीरिज)

समाज (दीवानी की बात)
नारी की सोच ज्यादा 'प्रेक्टिकल' होती है.

उसके व्यवहार में समाज के प्रति आस्था से अधिक भय दृष्टिगोचर होता था, लेकिन अकाट्य तर्क समझती थी वह इसको कि 'आखिर जीना तो इसी समाज में है'.

देखिये उसके शिकवे की एक बानगी.
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"तुम कहते हो
नहीं करें पर्वाह
हम समाज कि
उन नियमों एवं
परम्पराओं की
जो वर्षों से
बांधे हुए हैं
इस व्यवस्था को.

क्यों नहीं
सोचते
मानव है एक
सामाजिक प्राणी
जिसका
जीना मरना
जुड़ा है
समूह से
समाज से,
पहचान उसकी
अस्तित्व उसका
सब कुछ तो है
समाज से....

राम ने भी
समाज की
सत्ता को
स्वीकार था
असीम प्रेम
होते हुए भी
सीता को नकारा था,
जब तुम्हारे अवतार भी
समाज को
नहीं टाल सके
तुम और
हम तो
सामान्य प्राणी है
इसी समाज में
रहने वाले
समाज के सहारे
जीनेवाले..."

भीड़ कि नज़रों का अनुमोदन (Baat Vinesh Ki)

शब्दों का प्रत्युत्तर शब्दों में ही कुछ इस तरहा होता था:

# # #

मेरी नज़र में
समाज
एक व्यवस्थित
इकाई नहीं
केवल मात्र
भीड़ है एक
उन लोगों की
जिनमें अकेले
जीने का
नहीं है
सामर्थ्य..

बार बार
बोले जाने पर
बन गया है
एक झूठ भी
सत्य सा
और कहतें हैं
हम
उसी को
समाज
और
व्यवस्था उसकी...

भीड़ से बचना है
पहला फ़र्ज़ हमारा,
अर्थ नहीं है
इसका
भाग जाना
जंगल को,
मेरा कहना है
वैचारिक
स्तर पर
समझने हेतु
केवल
यथार्थ को,
छिपा दिया है
समाज ने
जिसको
आवरणों में
उसकी ही
रक्षा के नाम पर,
समाज की
आँखों में
देखना
प्रतिबिम्ब अपना
बंद कर दें हम
बस.....

अपने
कार्य कलापों के लिए
अपनी चेतना से
अधिक
भीड़ के
दर्पण में
झांकना
अनुमोदन के लिए
स्वयं में बसे
प्रभु की है
अवहेलना,
समाज की
आँखें तो
बदलती है
प्रतिपल
और
हर व्यक्ति की
आँख भी
हुआ करती है
पृथक,
कैसे इन
छद्म मापदंड़ो पर
जी सकता है
कोई
जागरूक,
जरा सोचो तो...

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