Monday, June 7, 2010

अंकुर...

जब हम किसी से जुड़ते हैं तो आपस में ना जाने कितने शब्दों का आदान-प्रदान हो जाता है, कभी कभी शब्द कुछ कहतें हैं और दिल और चेहरा कुछ, बात चीत के दौरान हम कई-एक पहलुओं पर अपनी बिखरी सोचों को भी शब्द देने का प्रयास करते हैं, किसी को जीतने या हराने के लिए नहीं,स्वयं को सच साबित करने के उद्देश्य से नहीं, प्रत्युत कभी तो बस यूँ ही-'फॉर नो रीजन' और कभी स्वयं को स्पष्ट करने के लिए भी। देखिये ना एक दिन उसने कुछ ऐसा कहा था:

बात दीवानी की...

# # #
एक बार
स्वयं
देना
चाहती हूँ
नाम
जीवन को !

बोना
चाहती हूँ
नए बीज
फिर
चाहती हूँ
देखना
नए
अंकुर को
पेड़ का
रूप
लेते हुए.

अपना
अस्तित्व
समझ
पाऊँगी
तभी तो...."

प्रत्युत्तर विनेश का

उस दिन उसने यह बात बहुत ही संजीदगी से कही थी. कुछ भी बोलने से पहले मुझे अपने आप को उसकी जगह रख कर सोचना था, तभी तो उसका नजरिया समझ पा सकता था. मगर ना जाने क्यों उसकी यह 'अस्तित्व' की बात मेरे पुरुष-अहम् को चौट पहुंचा रही थी, मेरी 'possesiveness' मेरे जेहन पर हावी हो रही थी......लेकिन मैने उन 'negative thoughts' को तुरत झटक दिया था और समझने का प्रयास कर रहा था कि वह क्या सोच रही है और क्यों सोच रही है ?

उस पल जो मेरे जेहन में था उसका शाब्दिक अनुवाद कुछ ऐसा सा होगा।

जुडाव स्वयं का सर्व-व्यापी अस्तित्व से

# # #
प्रिये !
तुम्हारे कथन में
बहुत
महत्वपूर्ण है
शब्द
'एक बार'.....

परम्पराएँ
मान्यताएं
जीने में
करती है
जरूर
मुहैया
आसानी,
मगर
छोड़ जाती है
एक खालीपन
एक नीरवता
एक रिक्तता
जो सालती
रहती है
हर पल,
उठाते हुए
कुछ अनबुझ
सवालों को
सोचने
समझने वाले
जेहनों में.

स्वयं के
अनुभव
स्वयं का
दर्शन (देखना)
लाता है
दृढ विश्वास
सत्य के
प्रति
मौलिकता के
प्रति.....

बोना है
अवश्य
नए बीज को
तुम्हे,
दे दो ना मुझे
इज़ाज़त
तुम्हारे साथ
उसे सींचने की
पालने की
एक पेड़ ही क्यों
हमें तो
बनाना है
पूरा
उद्यान
जहाँ खिलतें हो
फूल
कई रंगों के
फैलाते हों
खुशबूएं
कई तरहा की
गाते हो पंछी
तराने
कई सुरों में........
हमारा
यह अस्तित्व
नहीं है भिन्न
उस अस्तित्व से
जिसके हिस्से हैं
हम सब...

अस्तित्व का
अर्थ
अलगाव नहीं
जुडाव है
स्वयं का
सर्व-व्यापी
अस्तित्व से........

(यह कह कर मैने बात को अधूरा छोड़ दिया था.... और वह बात अब तक पूरी ना हो सकी है)



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